Kisi Gareeb insaan ke Majboori Ka Fayeda Uthana Kaisa Hai?
मैं एक ग़रीब इंसान हूँ, मुझे पैसों की ज़रुरत है. कोई है, जिसके पास काफ़ी पैसा है. मैं जाकर उससे उधार मांगता हूँ. वह मुझे पैसे तो देता है, लेकिन जितना दिया है, उससे ज़्यादा लौटाने की शर्त पर. सारी मुरव्वत, शराफ़त और अख़्लाक़ी-क़द्रों को जूते की नोंक पर रखकर. वह मेरी मजबूरी की बोली लगा देता है. ब्याज-दर तय कर देता है.
क्या मेरे और उस आदमी के दरमियान, इंसानियत का कोई रिश्ता नहीं था ?
क्या वह आदमी, इंसानियत के नाते मेरी मदद नहीं कर सकता था ?
क्या ज़रूरी था कि वह मेरी मजबूरी का फ़ायदा उठाता ?
ऐसा आदमी जो किसी इंसान की मजबूरी से भी पैसा बनाने की सोचे, इंसान हो ही नहीं सकता, भले ही क़ाबिलियत की बड़ी-बड़ी डिग्रियां रखकर किसी सरकारी या प्राईवेट बैंक में बैठता हो और चाहे वो अंगूठा छाप ही क्यों न हो.
जबकि इसलाम ने दो टूक अंदाज़ में साफ़ साफ़ इस मौज़ू पर कह दिया :
"अल्लाह ने कारोबार को हलाल किया और ब्याज को हराम किया"
[सूरह बक़रह/2, आयत/275]
रसूलुल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने सूद खाने वाले और उसके खिलाने वाले और उसके लिखने वाले और उसके गवाहों पर लानत की और फ़रमाया : "(गुनाह में) ये सब बराबर हैं."
[सही मुसलिम - 4093]
लेकिन अफ़सोस कि आज हमारे कपड़ों के हर रेशे में और खाने के हर निवाले में, किसी ना किसी शक्ल में सूद मौजूद है, क्योंकि पूरी दुनिया का निज़ाम चल ही सूद पर रहा है.
और हद तो तब होती है, जब मुसलमान सूद पर चलने वाले निज़ाम की जय-जय कार करता नज़र आता है. बेचारे को मालूम ही नहीं है कि ये अल्लाह और उसके रसूल से जंग करने के बराबर है.
"ऐ ईमान वालों !
अल्लाह से डरो और जो कुछ तुम्हारा सूद लोगों पर बाक़ी रह गया है, उसे छोड़ दो, अगर वाक़ई तुम ईमान वाले हो.
लेकिन अगर तुमने ऐसा न किया, तो ख़बरदार !
अल्लाह और उसके रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की तरफ़ से तुम्हारे ख़िलाफ़ ऐलान-ए-जंग है. अब भी तौबा कर लो (और सूद छोड़ दो), तो अपनी असल रक़म लेने के तुम हक़दार हो."
[सूरह बक़रह/2, आयत/278, 279]
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