Apna Mazhab Insaniyat batane wale Ki kya yahi Insaniyat hai?
Insaniyat Ke Nam par Logo ko Bewqoof banaya Jata hai.
क्या इंसानियत का सबक देने वाले की यही इंसानियत है।
जो लोग खुद को यह कहते है के मेरा मजहब इंसानियत है, उनकी इंसानियत कहा चली गई?
अगर कोई मुसलमान किसी की जेब काट ले तो उसका मज़हब 'इस्लाम' होता है और जब वो चिलचिलाती धूप मे मज़दूरों के लिए खाना पानी लेकर निकलता है तो उस का मज़हब 'इंसानियत' हो जाता है ‼
यह वो बडी साज़िश है जिस का शिकार 90% लोग हो जाते हैं.*
बिहारी।
जिसे दिल्ली मुंबई जैसे शहरों के लोगों ने समझा ही नहीं।
जी मालिक, आपने हमें समझा ही नहीं।
हम वही हैं जो सर्दी गर्मी बरसात में आपकी सेवा में हाजिर थे। न जाने किसकी नजर लग गई हमारी किस्मत को, जो आज हम दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो गए। हमने तो आपकी सेवा के बदले केवल दो वक़्त की रोटी मांगी थी। इस मुश्किल घड़ी में आप वो भी न दे सके। आपने तो हमें ऐसे दुत्कारा जैसे कोरोना जैसी महामारी को हम ही इस देश में लाए हैं।
पलायन तो हमारी किस्मत में लिखा है पहले जनरल डिब्बों में ठूंस कर आपके शहर में आए, आज पैदल ही अपने घर को जा रहे हैं।
हमें शौक नहीं है जो इस गर्मी में अपनी जान दांव पर लगा कर अपने गांव के रास्ते पर पैदल ही चल पड़े हैं।
बस, आपकी उपेक्षा के शिकार हैं। आपके पास अपने पालतू कुत्ते के लिए महंगे बिस्कुट तो थे उसे घुमाने के लिए गाड़ियां थी मगर हमे तो रिक्शा भी नसीब नहीं हुआ और ना हमारे लिए दो वक्त की रोटी नहीं थी।
मालिक आप चाहते तो हमे रोक सकते थे। पर आपने तो हमारी तरफ देखा तक नहीं। बस एक बार कह कर तो देखते….. की रुक जाओ तुम्हारी परेशानी में हम तुम्हारे साथ हैं। मजाल है जो हम अपने जीते जी आपका ये एहसान भूल सकते। लेकिन आपकी की भी मजबूरी है। आप तो खुद ही आपनी पूरी पगार और सरकारी सहायता की उम्मीद लगाए बैठे हैं। सरकार आपको पूरी मदद करे आपके बच्चों की फीस माफ कर दे बस।
हमे पता नहीं अपने घर पहुंच पाएंगे या नहीं, लेकिन क्या करे घर पर मां बाप भी जिद पकड़ कर बैठे हैं बेटा कैसे भी घर आ जाओ। इस मुश्किल घड़ी में हम आज भी तुम्हारे साथ हैं। भले ही तुम हमसे रूठ कर परदेस गए थे। लेकिन आज भी ये घर तुम्हारे बिना सूना सा लगता है। बस लौट आओ।
अगर ज़िंदा रहे तो फिर आएंगे आपकी ऊंची ऊंची कोठी फैक्ट्री और फ्लैट में आपकी खुशामद करने के लिए।
हम वो मजदूर हैं जो आपके एक कप चाय पिलाने का बखान अपने गांव तक करते है। हम उनमें से हैं जो किसी का एहसान पूरी ज़िन्दगी नहीं भूलते। जो हमारे दुख में हमारे साथ एक कदम चलता है, उसके सुख दुख में अपना जीवन भी दांव पर लगाने की कसम खा लेते हैं। हम ही हैं जो चुनाव के वक़्त लंबी लंबी लाइन में लगकर अपने पसंदीदा उम्मीदवार को जितवा कर उनके वहदा तक पहुंचा चुके हैं। आज क्यों ना वो हमें भूल चुके हैं। कोई शिकवा नहीं। हम ठहरे भोले भाले वोटर, कल को कोई फिर से अपनी बड़ी सी गाड़ी में भोंपू लगा कर आएगा और कहेगा हम हैं आपके सच्चे हितैषी। हमारा वोट फिर उसी को मिलेगा जो हमारे देश के विकास की बात करेगा। 1500 किलोमीटर तक पैदल सफर करने वाला फिर कल 150 रुपए के शराब के बोतल पे अपना वोट बेच देंगे।
आपने सचमुच हम बिहारियों को नहीं समझा मालिक।
हम बड़े सीधे हैं। रूठ कर तो जा रहे हैं। ये सोच कर कि फिर कभी नहीं आएंगे आपकी इन गलियों में। वहीं अपनी मिट्टी में समा जाएंगे। पर जब हालात सुधरें तो आपको हमारी याद बहुत आएगी। जब आपकी फैक्ट्रियों में मजदूर नहीं होंगे तो हमे याद कर लेना। अगर जिंदा रहे तो हम फिर आएंगे आपके शहर को रौशन करने। आपके काम हम ही आएंगे, वे नहीं जो आज जहाजों में भरकर अपने देश वापस आ रहे हैं, ये जताने की हमे अपने वतन की मिट्टी से बहुत प्यार है।
हमारी हिम्मत तो देखिए, आज अपने परिवार के साथ भूखे प्यासे निकल पड़े हैं अपने गांव की तरफ।
जो 1200 से 1500 किलोमीटर दूर है। इस बात से अनजान कि हम वहां पहुंच भी पाएंगे या नहीं। याद कीजिए मेरे जैसा ही कोई ड्राईवर आपके बच्चे को एक किलोमीटर के फासले पे स्कूल में गाड़ी से पहुंचाता है। वही आज इतनी दूर का रास्ता पैदल चलने को मजबूर हैं। हमारे लिए और कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम दुआ कर दीजियेगा के हम सही सलामत अपने वतन पहुंच सकें।
हां, अपने वतन।
क्योंकि आपके शहर में हमें अपनापन ही महसूस नहीं हो रहा तो इसे अपना वतन कैसे कहें।
वैसा सुलूक ही नहीं किया गया, गैरो के जैसा पेश आए हमारे साथ।
(एक बिहारी के कलम से)
चले बिहारी शहर छोड़कर।
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बहुत उड़ाई जिसने खिल्ली, रोएंगे अब मुंबई, दिल्ली।
जिनके बल उद्योग खड़े थे, हरियाणा, पंजाब हरे थे।
अन्न उगाए नहर खोदकर, चले बिहारी शहर छोड़कर।
भरपूर किए कर्मी का शोषण, कैसे मिलता तन को पोषण।
लाभांश मांग पर उन्हें चेताया, कुछ कर्मी को छांट दिखाया।
दिखा रहे थे अकड़ बोलकर । चले बिहारी शहर छोड़कर।
इनकी गर मजबूरी थी, तो तेरी भी मजबूरी थी।
दोनों की ही जरूरत, दोनों से होती पूरी थी।
पर रख न पाए इन्हें रोककर, चले बिहारी शहर छोड़कर ।
लेकिन सिर्फ इनको ही, मजबूर समझते आए थे।
वेतन कम निर्धारित कर, तुम इनका हिस्सा खाए थे।
सुनो, सुनो श्रुतिपटल खोलकर, चले बिहारी शहर छोड़कर।
सर पर चढ़कर नाच किये थे। दस के बदले पांच दिये थे।
मूल्य माल का दस का सत्तर, खून चूसते बनकर मच्छर।
वे काम लिए थे कमर तोड़कर, चले बिहारी शहर छोड़कर।
कोरोना ने उन्हें चेताया, मर जाओगे भूखे भाया।
जिनको तुम पर तरस न आई, दे पाएंगे क्या वो छाया।
घर भागो हे सबल, दौड़कर। चले बिहारी शहर छोड़कर।
जिस गर्मी में हंसा कांपे, उसमें हजार कोस वे नापे।
पैरों में पड़ गए फफोले, रोक न पाए ओले, शोले ।
निकल पड़े वे ताल ठोककर, चले बिहारी शहर छोड़कर ।
भूख,प्यास न उन्हें डिगाया, इच्छा शक्ति जोश दिलाया।
कोई रिक्शा, कोई ठेला, पर परिजन को ढो कर लाया ।
रोग प्रतिरोधक क्षमता के द्योतक, चले बिहारी शहर छोड़कर।
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