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Baccho ki Achi Tarbiyat Kaise Kare?

Bacchon ki Tarbiyat kaise kare?
Apne Bachchon ki Parwarish ke Liye kuchh Nasihat.

तहरीर: सरफराज़ फ़ैजी

बच्चों से मुहब्बत ज़रूर करें लेकिन इस मुहब्बत को ऐसी मजबूरी ना बनने दें जिसका बच्चे गलत फायदा उठाना शुरू कर दें। मुहब्बत और सख्ती में तावाजुन (Balance)  बनाए रखें, आपकी मुहब्बत के साथ साथ आपका डर भी बच्चे के दिल में होना चाहिए। हद से बड़ा हुआ लाड प्यार बच्चों को बिगाड़ देता है। ज़रूरत से ज़्यादा लाड प्यार में पले बढ़े बच्चे मां बाप के ना फरमान और बदतमीज होते हैं। आपकी मुहब्बत के साथ साथ आपकी डांट और मार का खौफ भी बच्चे पर होना चाहिए।
नबी सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम का फरमान है:
*ऐसी जगह पर कोड़ा लटकाओ जहां से घर के अफ़राद को नजर आ सके क्योंकि ये उनके लिए बा अदब होने का जरिया है।*
(तबरानी 10/344 ,सहीहा 1447 )

लिहाज़ा प्यार और मुहब्बत के बावजूद बच्चों से इतना फासला बना कर रखें कि आपकी शख्सियत की हैबत और रोब उनसे खत्म ना हो।

बच्चों को अदब सिखाने के लिए मारना भी तरबियत का एक अहम हिस्सा है लेकिन ये मारना भी नियम और कायदे के तहत होना चाहिए।
आखिरी हद तक कोशिश करें कि बच्चों को मारने की नौबत ना आए, अल्लाह के नबी सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम दुनिया के सब से अच्छे तरबियत करने वाले थे लेकिन आपने कभी किसी औरत, बच्चे या जानवर पर हाथ नहीं उठाया। अगर इसलाह और तरबियत के तरीके सही तौर पर अपनाए जाएं तो इंशा अल्लाह मारने की नौबत बहोत कम आएगी।

बच्चों को मामूली और छोटी गलतियों पर ना मारें, बड़ी गलती पर  मारें। गलती जितनी बड़ी होगी री एक्शन भी उतना ही सख्त होना चाहिए क्योंकि बच्चा आपके री एक्शन के बुनियाद पर ही गलती की संगीनी समझेगा।

बात बात पर मारने से बच्चे ढीत हो जाते हैं। बच्चे पर मार से ज़्यादा मार का खौफ असर अंदाज़ होता है। ज़्यादा मार खाने वाले बच्चे जर्री हो जाते हैं, उनके दिल से मार का खौफ निकल जाता है, वो मार खाने के आदी हो जाते हैं, फिर कोई और चीज उनको गलती से नहीं रोक पाती।

  बच्चों को गलती पर मारें, अनजाने में होने वाली गलती और भूल चूक पर नहीं। बच्चा कोशिश करके भी अगर कामयाब नहीं हो पा रहा है तो वो सज़ा का नहीं होस्ला अफजाई का मुस्तहिक है।

मारना तरबियत में आखिरी तादीबी (अदब सिखाने वाली) कार्यवाई है। जब तरबियत, समझने समझाने और इसलाह के सारे रास्ते अपनाएं जा चुके फिर भी इसलाह हो कर ना दे रही हो तो मारना आखिरी हल होता है।

बच्चों को उस उम्र में मारें जब उनको मार का मतलब समझ में आता हो।
अल्लाह के नबी सल्लल्लाहू अलैहि व सल्लम ने नमाज़ के मुतल्लिक़ फरमाया कि बच्चे को सात साल की उम्र में नमाज़ की ताकीद करो और दस साल की उम्र होने के बाद नमाज़ छोड़ने पर मारो। (अबू दाऊद:495)
इस हदीस से ये बात समझी जा सकती है कि कम उम्री में  बच्चों पर हाथ नहीं उठाना चाहिए। कम उम्री में बच्चों पर हाथ उठाने का नुकसान ये होता है कि उनपर किए जाने वाला तशद्दुद (सख्ती) खुद उनके मिज़ाज का हिस्सा बन जाता है। फिर ऐसे बच्चे दूसरे बच्चों और बड़ों पर हाथ उठाना सीख लेते हैं और फिर पूरी ज़िन्दगी के लिए ये तशद्दुद (सख्ती) उनकी शख्सियत का हिस्सा बन जाता है।

बच्चों को अदब सिखाने के लिए मारें, गुस्सा उतारने के लिए नहीं। हमारे समाज में बहुत सारे पैरंट्स के साथ ये मसला होता है कि वो ऑफिस और घर का गुस्सा बच्चों पर उतारते है।
औरतें सास, ससुर, ननद और शौहर से लड़ाई करके उसका गुस्सा बच्चों पर उतारती हैं, तो शौहर बॉस, कलीग, कस्टमर का टेंशन घर पहुंच कर बच्चों पर उंडेल देता है।

मारने में एतदाल कायम रखें, हल्की मार मारें, जानवरों की तरह बच्चों को ना पीटें। गुस्से की हालत में ना मारें क्योंकि गुस्से की हालत में दिमाग़ और हाथ काबू में नहीं होते, मारने के कुछ देर बाद मुहब्बत का भी इजहार करें।

मार के साथ मुहब्बत भी बाक़ी रखें, बच्चों के साथ बर्ताव ऐसा रखें कि उनके दिल में आपकी मुहब्बत आपके डर पर हमेशा ग़ालिब (भारी) रहे। ज़्यादा मारने से खोफ मुहब्बत पर ग़ालिब आ जाता है। बाज़ मर्तबा ये खोफ नफरत में बदल जाता है। बच्चे मा बाप से नफ़रत करने लगें ये बहुत बड़ा नुकसान है इस तरह तरबियत के सारे दरवाज़े बंद हो जाएंगे।

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