Gair Muslimo Ke Sath Nabi-E-Akram Sallahu Alaihe Wasallam Ka Akhlaq Kaisa Tha?
गैर-मुस्लिमों के साथ नबी करीम (सल्ल0) का व्यवहार
नबी करीम (सल्ल0) अपने जमाने में गैर-मुस्लिमों के साथ नरमी और बराबरी का व्यवहार करते थे और उनके साथ कभी नाइंसाफी का व्यवहार नहीं करते थे। नबी करीम (सल्ल0) के पास जब भी कोई गैर-मुस्लिम मिलने आता तो नबी (सल्ल0) स्वयं उसकी आवभगत और मेजबानी करते थे। एक बार तो मुलाकात करने आये ईसाईयों के एक दल को उन्होंनें मस्जिदे नबबी में अपने तरीके से इबादत करने की अनुमति भी दी थी। नजरान से मिलने आये यहूदियों के बारे में आपने फर्माया था, "यह असहाब हमारे सहाबा के लिये अलग और बिशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की हैसियत रखतें हैं, इसलिये जैसे इनका सम्मान और आतिथ्य खुद करने का फैसला किया है।" (इब्ने कसीर, सीरतुल हलबिया, 2:31)
*एक बार एक मुसलमान ने एक गैर-मुसलमान को पैगंबर के जमाने में हत्या कर दी। कानून के मुताबिक नबी (सल्ल0) ने उस मुसलमान को मौत की सजा दी और फर्माया, "गैर-मुस्लिमो के अधिकारों की सुरक्षा मेरा पहला महत्वपूर्ण कर्तव्य है।"
- *एक बार किसी यहूदी और मुसलमान के बीच खेत में सिंचाई की बात को लेकर झगड़ा हो गया। यहूदी का खेत पहले पड़ता था और उस मुसलमान का बाद में पर वो मुसलमान चाहता था कि पानी यहूदी के खेत में न जाकर पहले उसके खेत में जाये। झगड़े का किसी तरह समाधान होता न देखकर दोनो ने तय किया कि इस मसले के फैसले के लिये हम एक मध्यस्त तय करतें हैं जिसके निर्णय को हम दोनों को मानना होगा। यहूदी ने कहा, मुहम्मद (सल्ल0) का मैं मुखालिफ हूँ लेकिन मुझे उनपर पूरा एतमाद है कि वो मुकदमें में हक का साथ देंगें इसलिये मैं हकम के रुप में उन्हें नियुक्त करना चाहता हूँ। यह सुनकर मुसलमान मन ही मन बेहद खुश हुआ क्योंकि उसे यकीन था कि मुहम्मद (सल्ल0) उसके मुसलमान होने के कारण उसके हक में ही फैसला सुनायेंगें। दोनों अपने मुकदमें को लेकर मुहम्मद (सल्ल0) के पास आये। आपने दोनों की बातों को सुना और फैसला यहूदी के हक में सुनाया। यह धटना नबी (सल्ल0) के इंसाफ पसंदी को दर्शाता है। उनके उम्मत का इकरार करने वाला हक पर नहीं था तो आपने उसके खिलाफ मुकदमे का फैसला सुनाने से भी गुरेज न किया।
-ये 628 ईसवी की बात है। हजरत मुहम्मद (सल्ल0) के पास मिश्र के सिनाई पर्वत के पास मौजूद सेंट कैथेरिन के कुछ पादरी आये और उनसे अपने मजहब वालों के लिये सुरक्षा और शांति की जमानत मांगी। उनके अनुरोध पर हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने उन्हें एक लिखित अहदनामा दिया। इस अहद नामे में लिखा था, "ये पैगाम है मुहम्मद (सल्ल0) इब्ने अब्दुल्लाह की तरह से जो एक अहदनामा की हैसियत रखता है। उनके लिये जिन्होंनें नजदीक और दूर दीने-नसारा बतौर दीन इख्तियार किया है कि हम उनके साथ हैं दरअसल मेरे खुद्दाम, मेरे सहयोगी, मेरे सहाबा और मेरे मानने वाले इनकी हिफाजत करेंगें क्योंकि ईसाई हमारी प्रजा है। अल्लाह कसम, मुझे हर वो चीज नापंसद है जो इन्हें नाखुश करे। इन पर कोई जर्बदस्ती न हो, न उनके जजों को उनके पदों से हटाया जाये, न उनके पादरियों को उनकी इबादतगाहों से हटाया जाये, कोई शख्स उनकी इबादतगाहों को तबाह न करे, न उन्हें नुकसान पहुँचायें और न ही उनकी इबादतगाहों से कोई चीज उठाकर अपने घरों में ले जाये। जो ऐसा करेगा वह अल्लाह और उसके रसूल से किये गये वादे की नाफरमानी करेगा। इन्हें न कोई हिजरत करने पर मजबूर करेगा और न जंग करने पर। मुसलमान उनकी हिफाजत के लिये जंग करेंगें। अगर कोई ईसाई औरत मुसलमान से शादी करना चाहे, तो ये शादी उस औरत की मर्जी और रजामंदी के बगैर नहीं हो सकती, ऐसी औरत को इबादत के लिये चर्च जाने से नहीं रोका जायेगा। चर्च का आदर करना मुसलमानों के लिये आवश्यक है, वो किसी को चर्च बनाने या उसकी मरम्मत करने से नहीं रोक सकते, न ही उसके सम्मान को नुकसान पहुँचा सकतें हैं। कोई भी मुस्लिम शख्स इन वादों की नाफरमानी नहीं कर सकता।"
*हजरत मुहम्मद (सल्ल0) ने यह अहदनामा केवल उस समय के लिये ही नहीं बनाया था बल्कि हमेशा के लिये अपने उम्मतियों को इस अहदनामे के अनुपालन का आदेश दिया था। इस अहदनामे की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसमें नबी (सल्ल0) ने ईसाईयों से बदले में कुछ भी नहीं मांगा था
kya us post me likhi har baat jo ki Rasool s.a.w. ki taraf mansoob ki gai hai uska koi genuine reference mil sakta hai ?
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