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Mera Jism Meri Marzi: Muslim Khawateen Ke Liye Ek Lamha-e-Fikriya.

Mera Jism Meri Marzi Ki Haqeeqat: Muslim Khawateen Ke Liye Lamha-e-Fikriya.

Kya "Mera Jism Meri Marzi" ka nara Khawateen ko haque dila raha hai ya use bazar ki zeenat bana raha hai? Janiye is nare ke piche chupi sarmayadarana (Corporates) haqeeqat.
क्या आप 'आज़ाद' हैं या बाज़ार का 'ब्रांड्स'? फैसला आपका है!
कफ़न में जेब नहीं होती और कब्र में 'मेरी मर्ज़ी' नहीं चलती!
औरत को 'खुदा' से छीन कर 'बाज़ार' के हवाले करने की साज़िश!
वो आज़ादी जो आपकी हया छीन ले, वो आज़ादी नहीं, तबाही है!
Mera Jism Meri Marzi, Aurat Ki Azadi, Islam aur Aurat, Haya aur Parda, Modesty in Islam, Women Rights in Islam, Liberalism vs Islam.
Azadi Ya Zehni Ghulami?
लिबरलिज्म (Liberalism) ने औरत को यह पट्टी पढ़ाई है कि "कपड़े उतारना आज़ादी है", जबकि हकीकत यह है कि यह मर्दों की हवस को सस्ता करने का एक ग्लोबल एजेंडा है। जब आप कहती हैं "मेरा जिस्म मेरी मर्जी", तो दरअसल आप सरमायादार (Capitalist) को यह हक़ दे देती हैं कि वो आपके जिस्म को अपनी तिजोरी भरने के लिए इस्तेमाल करे।

"मेरा जिस्म मेरी मर्ज़ी" की असलियत: आज़ादी या औरतों के खिलाफ सबसे बड़ी साज़िश?
 
 धोखे का मीठा ज़हर.
आज के दौर में "मेरा जिस्म मेरी मर्ज़ी" का नारा ब-ज़ाहिर बड़ा खुश-नुमा लगता है, मगर हकीकत में यह एक ऐसा मीठा ज़हर है जो औरत के वकार को दीमक की तरह चाट रहा है। यह आज़ादी नहीं, बल्कि बाज़ार की वो गुलामी (Corporate Culture) है जिसमें जंजीरें दिखाई नहीं देतीं।

1. "कंसेंट" (Consent) के नाम पर खुद की नीलामी?

मेरे जिस्म मेरी मर्जी की औकात उस एक लम्हे में किये गए इरादे से ज्यादा नहीं कि जब आप 'कंसेंट' (Consent) के नाम पर किसी भी चर्सी, मवाली, शराबी-कबाबी या ज़ानी के हाथों में अपने आप को 'मोम' बना देती हैं। क्या यही वो आज़ादी थी? कि अपनी इज्ज़त को ऐसे हाथों में सौंप देना जो आपको इन्सान नहीं, सिर्फ गोश्त का टुकड़ा समझते हैं? सिर्फ पैसे और शोहरत के खातिर, इश्तेहार मे, कभि किसि कमपनि के ब्रांड्स के लिये.

2. पचास हज़ार में बिकता वकार: बाज़ार की हकीकत.

"मेरा जिस्म मेरी मर्जी" की औकात उन पचास हज़ार रुपयों से ज्यादा नहीं है कि जब आप उन चंद कागज़ के टुकड़ों की खातिर अपना जिस्म किसी साबुन या शैम्पू बेचने वाले की 'प्रोडक्ट मार्केटिंग' के लिए बाज़ार में पेश करती हैं।
अफसोस! वो आपकी 'मर्जी' नहीं खरीद रहे, वो आपकी 'हया' की कीमत लगा रहे हैं और आप इसे 'एम्पावरमेंट' (Empowerment) समझ रही हैं।

3. फार्मा इंडस्ट्री का मुनाफा और आपकी तबाही.

इस नारे की हकीकत उस दो-तीन सौ रूपये वाली गोली के आगे कुछ नहीं है जिसे आप औलाद जैसी नेमत को रोकने के लिए सालों खाती हैं और अपना जिस्म 'फार्मा इंडस्ट्री' (Pharma Industry) के हाथों तबाह करवाती हैं। वो अपना कारोबार बढ़ा रहे हैं और आप अपने कुदरती निज़ाम को बर्बाद कर रही हैं। क्या यह अकलमंदी है? 

4. शैतानी नज़रें और फैशन की गुलामी.

"मेरा जिस्म मेरी मर्जी" की औकात बाज़ार में बिकने वाले उस पांच-दस हज़ार के सूट से ज्यादा नहीं है जिसे आप इन्तेहाई बेहूदा अंदाज़ में सिलवा कर, पहन कर इबलीस की नज़रों की गेज़ा बनती हैं।
इस नारे की औकात 'वेप' (Vape) के उस एक कश से ज्यादा नहीं है जब आप एक ग़लीज़, दय्यूस और अय्याश दोस्त के हाथ से लेकर लगा लेती हैं और समझती हैं कि आपने ज़माना फ़तह कर लिया।

5. एक कड़वी मिसाल (माज़रत के साथ).

"मेरा जिस्म मेरी मर्जी" के नारे की औकात बिलकुल वैसी ही है जैसे गली में घूमने वाले पागल कुत्ते की... (माज़रत, मगर इससे बेहतर मिसाल थी ही नहीं इस नारे के लिए)... जो अपने वजूद पर बैठी मक्खी से परेशान होता है और झुंझला कर किसी को भी काट लेता है... और आखिर में अपने ही ज़ख्म से मुतासिर होकर मरता है। यह नारा भी मुआशरे को काट रहा है और औरत की रूह को ज़ख्मी कर रहा है।

6. आज़ादी का वहम: क्या वाकई आप मालिक हैं?

"मेरा जिस्म मेरी मर्जी" के नजरिये की औकात है ही क्या?
दुनिया की हर इंडस्ट्री, कमपनि बरांड्स, फिल्म उध्योग को आपने अपने जिस्म पर हुकूमत दे रखी है। आपने जब अपने जिस्म को अपनी 'पहचान' बनाया तो आपका जिस्म बाज़ार में एक 'प्रोडक्ट' की तरह बिक गया।
दाम लगाने वालों ने अपनी इस्तताअत (हैसियत) के मुताबिक दाम लगाए...
आपका जिस्म एक चौकिदार से लेकर एक CEO तक की नज़रों को ठंडा कर रहा है और आपको यह आज़ादी मालूम होती है? कोरपोरेट जगहो मे मनेजेर से लेकर  बडे बाबु साहेब तक को खुश करति है तरक्कि के लिये, वे बौस भि काबिलियय और तजुर्बा देखे बगैर जिस्म कि लज्जत पाकर प्रोमोशन दे देता है.

7. लॉजिक का जनाज़ा: इन्सान या प्रेजेंटेशन?

कहाँ से तालीम हासिल की है? कौन सी 'Logical Reasoning' को आपने अपना किबला बनाया हुआ है?
"मेरा जिस्म मेरी मर्जी" का नज़रिया तो आपके जिस्म को 'ब्रांड्स की मिल्कियत' (Public Property) बनाता है। औरत के साथ इससे बड़ा धोखा कभी नहीं हुआ।

यह नारा कहता है: "मैं अपनी मर्जी की मालिक हूँ।"
मगर सवाल यह है: क्या बाज़ार, इश्तिहार, इंडस्ट्री, फैशन, और ख्वाहिशात के निज़ाम में रह कर, इस निज़ाम को कुबूल करके, इस निज़ाम को सपोर्ट करके वाकई आप अपनी मर्जी की मालिक हो गईं?
या फिर मर्जी भी वही होती है जो 'मार्केट' तय कर देती है?

फिर जब जिस्म को पहचान बना दिया जाए तो:
- वकार, वकार नहीं रहता, दीवार बन जाता है।
- हया, कदर नहीं रहती, रुकावट बन जाती है।
- औरत, इन्सान नहीं रहती, 'Presentation' बन जाती है।

फिर लोग दाम लगाते हैं; कोई नज़रों से, कोई पैसों से, कोई शोहरत और रशुख से। यह नारा आपको बता रहा है कि तुम आज़ाद हो, मगर अमली दुनिया में तो आप कैमरे के सामने कैद हैं, फैशन के रुझान की गुलाम हैं, सोशल मीडिया के 'लाइक्स' की मोहताज हैं, मार्केट के रेट पर तौली जाती हैं... यह आज़ादी नहीं, यह एक 'नफसियाती गुलामी' (Psychological Slavery) है, बस इसमें जंजीरें नज़र नहीं आतीं।

8. इस्लामी नज़रिया: जिस्म मिल्कियत नहीं, अमानत है.

मुसलमान का जिस्म अल्लाह की अमानत है, ज़ाती मिल्कियत नहीं। मुसलमान को अपने जिस्म के मुतल्लिक़ (Absolute) इख्तियार हासिल है ही नहीं; हर अमल हलाल-हराम, जायज़ व नाजायज़ से जुड़ा है। अल्लाह की हदूद से बगावत का नाम है "मेरा जिस्म मेरी मर्जी"।

इस्लाम इन्सान से कहता है: "खुद को पहचानो बतौर इन्सान (अब्द)।"
मगर यह नारा कहता है: "खुद को पहचानो बतौर जिस्म।"

ये दो नज़रियात आपस में टकरा रहे हैं... क्योंकि एक आसमान से आया है (वही) और दूसरा बाज़ार से। 
मोतबर कौन सा होगा? 
अगर आपकी सोच आसमानी है तो फिर आप बाज़ारी सोच की हामिल नहीं हो सकतीं।
आपके ज़हन में यह सवाल तो आया कि "मेरा जिस्म किसका है?" और आपने इसका जवाब भी खुद ही गढ़ लिया... लेकिन यह सवाल क्यों नहीं आया कि "मेरी सोच किसकी है? 
मेरी तरजीहात (Priorities) किसकी हैं? 
मेरी हदूद कौन तय कर रहा है?
मेरि ज़िंदगि का मकस्द क्या है?
मै फैशन के लिये जि रहि हू या खुद के लिये?

हकीकत यह है कि सिर्फ आपका जिस्म ही नहीं, आपकी सोच, तरजीहात और हदूद सबको पामाल किया जा रहा है। आपने जिस्म को “हक़” के नाम पर आज़ाद तो किया मगर बाज़ार ने उसे “मारकेट प्रोडक्ट” के नाम पर कैद कर लिया। आप जिसे इख्तियार कहती हैं वो दरअसल 'सरमायादार' (Capitalist) का कण्ट्रोल है, आप जिसे आज़ादी कहती हैं, वो दरअसल ख्वाहिश की गुलामी है।

9. एक रूह कंपा देने वाला सवाल.

अच्छा! 
अगर "मेरा जिस्म मेरी मर्जी" इतना ही औरत के हक़ में है और औरत इतनी ही आज़ाद है और उसे अपना नफा-नुकसान का पता है... 
तो यह सारी औरतें जो सारा साल सड़कों पर उछलती रहती हैं साइन बोर्ड्स लिए, इनमे से कोई एक औरत भी यह वसीयत करके क्यों नहीं मरती कि:
"मरने के बाद मुझे बरहना (Naked) दफनाया जाए?
मेरि ज़िनदगि मेरि मर्जि, मेरे जिस्म को हाथ मत लगाना बल्कि खुद तय करेगा क्या करना है और क्यु?
मेरे मरने के बाद मेरे बरहना जिस्म को देखकर मर्द अपनी नज़रें नीची रखें, मैं दुनिया में बरहना आई थी, बरहना जाऊंगी?"

है हिम्मत यह करने की?   नहीं...
क्योंकि दिल में आप भी कहीं ना कहीं यह जानती हैं कि मुझे रब के पास पलटना है... बस अपनी 'अना' (Ego) में यह तस्लीम करने को तैयार नहीं हैं कि कान, नाक, हाथ, जिस्म के हर हिस्से का हिसाब होगा, सब आज़ा (Body Parts) गवाही देंगे।

 इज्ज़त चाहिए या कीमत?

असल हकीकत यह है कि यह नारा दरअसल औरत को ख़ुदा से छीन कर बाज़ार के हवाले करने का सबसे कामयाब मंसूबा है और आप इस मंसूबे की CEO बनकर अपना किरदार अदा कर रही हैं।

- "मेरा जिस्म मेरी मर्जी" वो वायरस है जिसने आपके रूहानी खलिये (Cells) तबाह व बर्बाद कर दिए हैं।
- मुसलमान जिस्म का मालिक नहीं, 'अमीन' बनाया गया था। 
इस अमानत के बारे में सवाल होगा तो आपके पास क्या जवाब होगा? 
इस बेहयाई का जो आप इस नारे को बुनियाद बनाकर फैला रही हैं?

यह नारा आज़ादी का नहीं, रूहानी खुदकुशी का ऐलान है।
यह हक़ का नहीं, ख्वाहिश की हुक्मरानी का परचम है।
और यह वकार का नहीं, कीमत लगने की इब्तिदा है।

और याद रखिये... जिस दिन इन्सान ने खुद को 'अब्द' (बंदा) के बजाय फकत 'जिस्म' समझ लिया, उसी दिन वो बाज़ार में एक 'आइटम, ब्रांड्स, प्रोडक्ट' बन गया। और दुनिया का दस्तूर है कि आइटम की इज्ज़त नहीं होती, सिर्फ कीमत होती है।

"ए बिंत-ए-हव्वा! (हव्वा की बेटी!)"

तू इस्लाम की शहज़ादी है, किसी ब्रांड की 'सेल्स गर्ल' नहीं। तेरी हया, तेरा पर्दा और तेरा वकार वो ताज है जो तुझे दुनिया की गंदी नज़रों से बचाता है।
बाज़ार तुझे "पसंद" करना चाहता है ताकि वो तुझे "इस्तेमाल" कर सके, लेकिन तेरा रब तुझे "महफ़ूज़" रखना चाहता है ताकि तुझे "इज़्ज़त" दे सके।
सोच ज़रा! तूने किसको चुना? 
उस दुनिया को जो तुझे ढलती उम्र के साथ रद्दी की टोकरी में फेंक देगी? या उस रब को जो तुझे जन्नत की शहज़ादी बनाना चाहता है?
अपने मकाम को पहचान.

यह कैसा मुहिम है जो औरत को घर की मल्लिका से निकाल कर ऑफिस की 'शो-पीस' बना देता है?
याद रखिये! लिबरल निज़ाम आपको 'इख्तियार' (Choice) नहीं देता, बल्कि उल्झन (Illusion/भ्रम) देता है। आप वही पहनती हैं, वही करती हैं, वैसा ही दिखती हैं जैसा 'ट्रेंड' (Trend) हुक्म देता है।
यह आज़ादी नहीं, यह ख्वाहिशों की वो जेल है जिसकी दीवारें दिखाई नहीं देतीं।

   हासिल ए कलाम.
नतीजा सिर्फ इतना है कि इन्सान का जिस्म उसका अपना कमाया हुआ नहीं, बल्कि अल्लाह की दी हुई 'अमानत' है। और अमानत में खयानत करना 'मर्ज़ी' नहीं, 'जुर्म' कहलाता है।
जिस दिन हमारी बहनों ने यह समझ लिया कि उनकी खूबसूरती नुमाइश के लिए नहीं, बल्कि हिफाज़त के लिए है, उस दिन बाज़ार सूने हो जायेंगे और घर आबाद हो जायेंगे।
अल्लाह की हदूद को तोड़कर कभी सुकून नहीं मिल सकता। सुकून 'मर्ज़ी' चलाने में नहीं, रब की 'रज़ा' में है।

या अल्लाह!
हमारी मां, बहनों और बेटियों की हिफाज़त फरमा।
या रब! इन्हें ज़दिद फितनों, बे-हयाई के तूफानों और शैतानी नारों के असर से महफ़ूज़ रख।
इन्हें हज़रत फातिमा (र.अ) और हज़रत आयशा (र.अ) की सीरत और हया नसीब फरमा।
इनके दिलों में इस बात का यकीन पैदा कर दे कि असल इज़्ज़त तेरी फरमाबरदारी में है, बाज़ार की नज़रों में नहीं।
या अल्लाह! जो बहनें जाने-अनजाने में लिबरलिज्म के धोखे का शिकार हैं, उन्हें हिदायत की रौशनी अता कर और उन्हें वो 'हया' लौटा दे जो एक मुस्लिमाह का असल गहना है।
   आमीन या रब्बुल आलमीन!

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