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Europe Ka Asali Chehra: Rumi Daur Ki Khaufnak Haqeeqat.

Roman Empire Aur Insani Huqooq: Tarikh Ke Siyah Auraq Ka Post-Mortem.

Kya Maghrib Insani Huqooq Ka Alam-Bardar Hai? Janiye Sach
Roman Jamhuriyat Me Ghulamo Ke Sath Janwaron Jaisa Salook.
Khawateen Par Zulm: Rumi Auraton Ki Apni Hi Jins Par Zyadatiyan.
Bhook Aur Maut: Augustus Caesar Aur Deegar Hukmarano Ki Safaki.
Islam Ka Roshan Pehlu: Ghulamo Aur Mazdooro Ke Huqooq.
Maghribi Munafiqat (Hypocrisy) Aur Aaj Ka Selective Agenda.
रोमन साम्राज्य की काली सच्चाई: इंसानी हक़ूक़ कैसे बने इतिहास के सबसे बड़े सवाल…
Unveil the dark reality of the Roman Empire: slavery, brutality, and women's oppression. A historical analysis exposing Western hypocrisy versus Islamic justice.
#RomanEmpire #IslamicHistory #HumanRightsHypocrisy #SlaveryInRome #WesternCivilization #IslamVsWest #HistoryFacts #WomenInHistory #SocialJustice #TruthRevealed
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Maghribi Munafiqat (Hypocrisy) Aur Aaj Ka Selective Agenda.
खुद को मुहज्जब कहने वाला यूरोप अपने माजी के क़ाली करतुतो को छिपाने के लिए, उसपर चादर डालने के लिए आज नामनिहाद् इंसानी हुकुक, औरतों की आज़ादी की बात करता है ताकि इससे लोगो मे खुद को सबसे बड़ा मसीहा के तौर पर पेश कर सके।

मगरिब की चमक-दमक और इनके "इंसानी हुकूक" के खोखले नारों से मरऊब (Impress) न हों। यह वो कौमें हैं जिनकी अपनी तारीख मज़लूमों के खून और हड्डियों पर तामीर हुई है। आज यह जो "आज़ादी" और "मसावात" का पाठ पढ़ाते हैं, यह महज़ एक सियासी चाल है। अपनी तारीख पढ़िए, अपने असलाफ़ के रोशन कारनामों को पहचानिए और एहसास-ए-कमतरी (Inferiority Complex) से बाहर निकलिए। सच को जानिए और दुनिया तक पहुंचाइए, क्योंकि जो कौमें अपनी तारीख भूल जाती हैं, वो सफ़्हा-ए-हस्ती से मिट जाती हैं।

तारीख के आईने में: इंसानी हुकूक के झूठे अलमबरदार और रूमी तहज़ीब की हौलनाक हकीकत.

आज की दुनिया में जहां "इंसानी हुकूक" (Human Rights) और "खवातीन की आज़ादी" (Women's Rights) के खुशनुमा नारे बुलंद किए जाते हैं, वहां एक अजीब तज़ाद देखने को मिलता है। वो अक़वाम, जो आज मशरिक और खास तौर पर आलमे-इस्लाम को तहज़ीब-ओ-तमद्दुन का दरस देती हैं, अगर उनके अपने माज़ी के औराक पलटे जाएं तो वहां सिवाय वहशत, दरिंदगी और खून की होली के कुछ नज़र नहीं आता। आइए तारीख के सफो से उस "अज़ीम" रूमी तहज़ीब (Roman Civilization) का जायज़ा लें जिस पर आज का जदीद मगरिब फख्र करता है।

1. रूमी जमहूरियत का स्याह बाब: इस्मत-दरी और इंसानी मंडियां.

रूमी दौर, जिसे अक्सर जमहूरियत और कानून का सुनहरा दौर कहा जाता है, दर हकीकत कमज़ोरों और गुलामों के लिए जहन्नुम से कम न था। तारीख गवाह है कि इस मुआशरे में अखलाकियात का जनाज़ा निकल चुका था। गुलामों के साथ हरामकारी और बद-किरदारी एक मामूल की बात थी। लौंडियों की इस्मत-दरी, रूमी शोरफा का पसंदीदा मशगला था और लातादाद शादियां या जिंसी ताल्लुकात कायम करना उनकी तहज़ीब का हिस्सा था।

यहां तक कि इंसानी जिस्म की तज़लील की इंतेहा यह थी कि गुलाम मर्दों और औरतों से ज़बरदस्ती तवायफ-रानी (Prostitution) करवाई जाती थी। बाज़ारों में इंसानी गोश्त की नुमाइश जानवरों की तरह होती थी। मासूम बच्चों, औरतों और मर्दों को सरे-बाज़ार बरहना खड़ा किया जाता ताकि खरीददार उनके जिस्मों का मुआयना कर सकें। सबसे ज़्यादा दाम देने वाले को उसका "पसंदीदा शिकार" (गुलाम मर्द या औरत) बेच दिया जाता था। क्या यह वही तहज़ीब है जिसके वारिस आज हमें औरत के मकाम का दरस देते हैं?

2. ज़ुल्म ओ जयादति और तशदुद्द: मेहमान-नवाज़ी के नाम पर कत्ल.

विलियम हार्टपोल लेकी (William Hart pole Lecky) अपनी मशहूर किताब "History of European Morals" (पेज: 255) में रोमियों की अखलाकी गिरावट का जो नक्शा खींचते हैं, उसे पढ़कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं।

फ्लामिनियस की खूनी तफरीह: तीसरी सदी कब्ले-मसीह का मारूफ रूमी सियासतदान गेयस फ्लामिनियस (Gaius Flaminius) का वाकया उस कौम की नफसियात को समझने के लिए काफी है। जब उसके पास एक मेहमान आया, तो उसकी "तफरीह" (मनोरंजन)  के लिए नाच-गाने का इंतज़ाम काफी न समझा गया। उसने अपने मेहमान को खुश करने के लिए अपने ही एक गुलाम को ज़िबह करवा दिया ताकि मेहमान मरने वाले की तड़प देखकर लुत्फ-अंदोज़ हो सके। यह थी उनकी इंसानियत!

मछलियों की खुराक: रूमी कैसर का वज़ीर वेडियस पोलियो (Vedius Pollio) सफ़्फ़ाकी में इससे भी दो हाथ आगे था। उसने अपने तालाब में खास किस्म की मछलियां पाल रखी थीं और उनकी खुराक के लिए वो अपने ज़िंदा गुलामों का गोश्त काटकर उन्हें डालता था या गुलामों को उनके आगे फेंक देता था।

3. भूख की सज़ा मौत: आगस्टस सीज़र का इंसाफ

रोमन एम्पायर का बानी और पहला रूमी शहंशाह जूलियस सीज़र आगस्टस (Augustus Caesar), जिसे तारीख में बहुत बड़ा नाम समझा जाता है, उसका इंसाफ देखिए। 
उसका एक शामत-ज़दा गुलाम शदीद भूख के आलम में उसका एक "बटेर" (Quail) पका कर खा गया। महज़ एक परिंदे के बदले में इस नाम-निहाद अज़ीम बादशाह ने उस इंसान को फांसी पर लटका दिया। इस तहज़ीब में एक परिंदे की जान इंसान की जान से ज़्यादा कीमती थी।

4. कानून और अदालत: बेबस गुलामों की फरियाद.

रूमी अदालतों में इंसाफ सिर्फ ताकतवर के लिए था। गुलामों की गवाही (Testimony) की कोई कानूनी हैसियत नहीं थी, उन्हें इंसान समझा ही नहीं जाता था। सज़ा-ए-मौत के ऐसे हौलनाक तरीके ईजाद किए गए थे जिन्हें सुनकर रूह कांप जाए।

जज़ीरा टाइबर (Tiber Island): जब गुलाम ज़ईफ़, बीमार या कमज़ोर हो जाते और काम के काबिल न रहते, तो उन्हें इलाज करवाने के बजाय "जज़ीरा टाइबर" पर ले जा कर छोड़ दिया जाता। वहां उन्हें खुराक और पानी के बिना तड़प-तड़प कर मरने के लिए डाल दिया जाता।

ज़ंजीरें और औज़ार:  दरवाज़ों पर पहरा देने वाले गुलामों को सर से पांव तक ज़ंजीरों में जकड़ कर रखा जाता। खेतों में हल चलाने वाले इंसानों को वज़नी बेड़ियां पहनाई जातीं। रूमी खवातीन, जो आज की "फेमिनिज़्म" की नानी-अम्मा समझी जा सकती हैं, वो अपनी खादिमा, गुलाम औरतों के जिस्मों में बड़े-बड़े सूए (Needles) चुभोतीं और उनके चेहरों को नोचतीं, महज़ अपनी झल्लाहट मिटाने के लिए।

गुलामों की हैसियत यह थी कि आका को मुकम्मल इख्तियार था कि चाहे तो उन्हें जंग में लड़ने के लिए "सयाफी" (Gladiator) बनाकर बेच दे या जंगली दरिंदों के सामने डाल दे।

5. आज की मुनाफिकत और सियासी एजेंडा.

यह वो तारीक और खून-आलूद तारीख है जो आज की अमेरिकी और बर्तानवी नस्लों का विरसा है। यह वही लोग हैं जो आज इस्लाम में गुलामों के हुकूक पर बात करते हैं और अपने बुत-परस्त रूमी बाप-दादाओं के ज़ुल्म-ओ-बरबरियत के कबीह आमाल से भरी हुई तारीख से चश्म-पोशी (Ignore) इख्तियार कर लेते हैं।

आज मगरिब "ह्यूमन राइट्स" और "हुकूके-निस्वां" का नारा किसी हमदर्दी की बुनियाद पर नहीं लगाता, बल्कि यह एक सियासी हथियार (Political Tool) है। इसका मकसद दूसरी कौमों पर दबाव डालना, अपनी बाला-दस्ती कायम रखना और अपने सियासी मफादात हासिल करना है।

6. युरोप की नाम-निहाद हुकूके-निस्वां: औरतों के हाथों औरतों की मज़लूमियत.

आज मगरिबी मीडिया और उनके दानिश्वर (Intellectuals) यह प्रोपेगेंडा फैलाते हैं कि सिर्फ मर्द ही ज़ालिम है, लेकिन रूमी तारीख का यह पहलू इंतहाई खौफनाक है कि वहां खवातीन खुद दूसरी खवातीन (गुलाम औरतों) की सबसे बड़ी दुश्मन थीं। रूमी रईसज़ादियां और बेगमात (Noble Women) अपनी खादिमाओं पर जुल्म के पहाड़ तोड़ती थीं।
अगर किसी गुलाम लड़की से बाल संवारते वक्त ज़रा सी गलती हो जाती, या आईना पकड़ने में देर हो जाती, तो यह "मुअज्ज़िज़" रूमी खवातीन लोहे के गर्म सलाखों या भारी सुइयों (Needles) से उन लड़कियों के जिस्म को गोद देती थीं। यह वही औरतें थीं जो आज की "फेमिनिज़्म" की पूर्वज (Ancestors) हैं, मगर उस दौर में उन्हें अपनी ही हम-जिंस (Same Gender) मज़लूम औरतों पर तरस नहीं आता था। वहां जुल्म का मेयार "मर्द बनाम औरत" नहीं था, बल्कि "ताकतवर बनाम कमज़ोर" था। मर्द और औरत, दोनों ही गुलामों को जानवरों से बदतर समझते थे और दोनों ही इंसानियत की तज़लील में बराबर के शरीक थे।

7. इस्लाम का आफताबी निज़ाम: गुलामों और मज़दूरों के साथ रवादारी.

इस घनघोर अंधेरे में इस्लाम एक ऐसी रोशनी बनकर उभरा जिसने इंसानियत को "सिला-रहमी" (Silah Rahmi) और मसावात का दरस दिया। जहां रोम में गुलामों को मछलियों की खुराक बनाया जाता था, वहां पैगंबर-ए-इस्लाम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने यह फरमान जारी किया:

"जो तुम खुद खाओ, वही अपने गुलामों (मातहतों) को खिलाओ, और जो तुम खुद पहनते हो, वैसा ही उन्हें पहनाओ। उन्हें उनकी ताकत से ज़्यादा काम न दो, और अगर काम भारी हो तो खुद उनकी मदद करो।"

इस्लाम ने गुलामों को "भाई" का दर्जा दिया। तारीख गवाह है कि इस्लाम के साये में गुलाम बादशाह बने, सिपहसालार बने और इल्म के पहाड़ बने (जैसे हज़रत बिलाल रज़ि. और हज़रत उसामा रज़ि.) । इस्लाम ने न सिर्फ गुलामों को आज़ाद करने को सबसे बड़ा सवाब (Virtue) करार दिया बल्कि आज के दौर के "मज़दूरों और नौकरों" के हुकूक भी मुतअय्यन किए कि "मज़दूर का पसीना सूखने से पहले उसकी उजरत (Wages) अदा करो।" यह वह रवादारी है जिसकी नज़ीर रूमी या यूनानी तहज़ीब में कहीं नहीं मिलती।

8. मगरिब का दोहरा मेयार: सिलेक्टिव एजेंडा और तन्कीदी जायज़ा.

आज का युरोप और अमेरिका, जो खुद को तहज़ीब का ठेकेदार समझता है, एक "सिलेक्टिव एजेंडा" (Selective Agenda) पर अमल-पैरा है। यह उनकी खुली मुनाफिकत (Hypocrisy) है कि वो अपनी हौलनाक तारीख—जहां औरतों और मर्दों को बेड़ियों में जकड़ कर रखा जाता था—पर तो पर्दा डालते हैं, लेकिन इस्लाम के उन कवानीन पर उंगली उठाते हैं जिन्होंने ज़ुल्म का खात्मा किया।

इनका "ह्यूमन राइट्स" का नारा सिर्फ सियासी मफादात के लिए है। जब यह चाहते हैं तो किसी मुल्क को तबाह करने के लिए "औरतों के हुकूक" का बहाना बनाते हैं, लेकिन खुद अपने मुआशरे में मौजूद बेहयाई और खवातीन के इस्तेहसाल (Exploitation) को "आज़ादी" का नाम दे देते हैं। हकीकत यह है कि आज भी मगरिबी ज़हनियत उसी "रूमी तकब्बुर" (Roman Arrogance) का शिकार है, जो खुद को आला और बाकी दुनिया को हकीर समझती है। हमें इनकी चिकनी-चुपड़ी बातों से मरऊब होने के बजाय इनके इस दोहरे मेयार को तारीख के आईने में बेनकाब करना चाहिए।

नतीजा (Conclusion):
तारीख के औराक चीख-चीख कर कह रहे हैं कि रूमी तहज़ीब की बुनियाद इंसानी हड्डियों और मासूमों के खून पर रखी गई थी। आज हमें ज़रूरत है कि हम मरऊब होने के बजाय तारीख का गैर-जानिबदाराना मुताला करें। मगरिब की यह तनकीद दरअसल अपनी स्याह तारीख से नज़रें चुराने और दूसरों को नीचा दिखाने की एक नाकाम कोशिश है.

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