Find All types of Authentic Islamic Posts in English, Roman Urdu, Urdu and Hindi related to Quran, Namaz, Hadeeth, Ramzan, Haz, Zakat, Tauhid, Iman, Shirk, Islah-U-Nisa, Daily Hadith, Hayat-E-Sahaba and Islamic quotes.

Islam and Liberalism: Gábor Vona European Leader - Islam Europe Ke Liye Aakhiri Umeed Hai.

Europe Ke Leader ne Kyu Kaha Islam Aakhiri Umeed hai Europe ke liye?

Islam Is the Last Hope of Europe in liberalism Darkness.
Islam: Europe's Last Hope or New Beginning?
Islam’s Role in Europe: A Beacon of Hope?
Europe’s Turn Toward Peace and Interfaith Dialogue.
Why European Leaders See Islam as a Source of Hope?
Pope Leo XIV’s Peace Mission: Can Islam Unite Europe?
Europe’s path to peace: Islam as a bridge of understanding.
Islam – A ray of hope in the eyes of European leaders.
यूरोप के नेताओं की नज़र में इस्लाम क्यों है उम्मीद?
यूरोप के लिए इस्लाम: आख़िरी उम्मीद या नया रास्ता?
शांति की ओर बढ़ता यूरोप: इस्लाम बन रहा है सेतु।
यूरोप के नेताओं की नज़र में इस्लाम – एक उम्मीद की किरण।
पोप लियो XIV की पहल: क्या इस्लाम यूरोप को जोड़ सकता है?
शांति की ओर बढ़ता यूरोप, इस्लाम बन रहा है सेतु, यूरोप के नेताओं की नज़र में इस्लाम, एक उम्मीद की किरण,
Islam Is the Last Hope of Europe in liberalism Darkness.
यूरोप के नेताओं द्वारा इस्लाम को "आख़िरी उम्मीद" कहे जाने के पीछे शांति और संवाद की आशा है।
“जब बाज़ार की आंधियाँ रिश्तों को रेज़ा-रेज़ा कर दें, तब दिल कहता है: कोई तो सहारा हो—और वही सहारा इस्लाम के अद्ल, हया और अमानत के उसूलों में नज़र आता है; यही वजह है कि अँधेरों में उम्मीद का चिराग़ यहीं से जलता है।”
लिब्रलीज़म, डेमोक्रेसी, कॉमन वेल्थ ने फहाशि, बेहयाई, अय्याशी ऐसी कौन सी आज़ादी या हक यूरोप को नही दिया है जो अब वह इस्लाम से उम्मीद लगाए बैठे है। ऐसा क्या है इस्लाम मे जो अब वह इससे लेना चाहते है? 
गैबर वोणा एक हंगरी के नेता है जिन्होंने यूरोप के झूठे और दिखावे वाले निज़ाम का भंडाफोर् करके रख दिया और यहाँ तक कहा के इस्लाम ही आखिरी उम्मीद है यूरोप को लिबरलीज़म के काले अंधेरे से निकालने के लिए। 
अब वह खुद यूरोप के हर अधिकार, आज़ादी का मजा ले चुके होंगे इसके बावजूद वह 1400 साल पहले वाला दकीयानुसी इस्लाम (जैसा के रौशन ख्याल वाले कहते है) से उम्मीद लगाए हुए है के वह काले अंधेरे से निकाल देगा। 
देशी लिबरल्स उसी काले अंधेरे को आज़ाद ख्याल और रौशन ख्याल का मोहर लगाकर यहाँ बेच रहे है। इसके लिए उसे यूरोप से डॉलर के साथ सियासी मदद मिलता है। वे नैरेटिव तैयार करते है फिर उसे सिनेमा, मीडिया और सैलबस् के जरिये दिमाग पर काबिज हो जाते है। वह वही पढ़ाते है जो उनके फिक्र के मुताबिक सही हो इस तरह से अवाम पर अपना सिक्का चलाते है फिर हुकूमत से मांग करते है के ज़दीद और आज़ाद ख्याल तरीके से कानून मे तब्दीली किये जाए। इस तरह से वे हमजींस परस्ती, ट्रांसजेंडर के शादी, फहाशि सभी को आम करते जाते है हक और आज़ादी के नाम पर। 
जबकि यूरोप के अवाम ने इसका जाएका बहुत पहले चख लिया है इसलिए वे डिप्रेशन,तन्हाई, बेचैनी, अंदर से घबराहट के शिकार है। चैन सुकून व इतमिनान, दिल को तसल्ली, रूह की आवाज़ सब मर चुकी है। उन्हे जीने की उम्मीद, जिंदगी का मकसद, खुद पर यकीन और ज़मीर की ताजगी, नेक इरादा ' क्या होता है सबकुछ इस मॉडर्न कवाएद ने खतम कर दिया।
"Islam is humanity's last hope in the darkness of globalization and liberalism."
 Gábor Vona. leader of Europe's largest parties. 
 ग्लोबलाइज़ेशन की सर्द रात में इस्लाम की गरमाहट
जब बाज़ार की हवा इंसान को जड़ से उखाड़ दे और लिबरल निज़ाम हर रिश्ते को अकेलेपन में बदल दे, तब यही आवाज़ बुलंद होती है कि इस्लाम उम्मीद का आख़िरी चिराग़ है। इस नजरिये में इबादत के साथ अख़लाक, क़ानून और समाज का पूरा ज़िम्मेदार ढांचा शामिल है, जो इंसान को सिर्फ हक़ नहीं, फर्ज़ की याद भी दिलाता है।
गाबोर वोना ने जो कहा, वह किसी नफरत की सियासत नहीं, बल्कि तहज़ीबी इस्तिक़ामत का बयान था—कि मक़सद मज़हबों का टकराव नहीं, बल्कि रिवायत और बेमहदूद फर्दियत के बीच का असल इम्तिहान है। यूरोप पहचान के सवालों से घिरा था, तो उन्होंने इस्लाम को एक ऐसे निज़ाम की मिसाल समझा जो घर-परिवार की हिफ़ाज़त, पर्दा-हया की अहमियत और अद्ल के उसूलों को ज़िंदा रखता है। इस तजुर्बे में मस्जिद की अज़ान हो या अदालत की बेबाकी इंसाफ  —दोनों मिलकर यह बताते हैं कि समाज हक़ और आज़ादि की बैसाखियों से नहीं, बल्कि जिंदा क़दर-ओ-क़ीमत से खड़ा रहता है।

 लिबेरल्स मीडिया की फिजा मे सनसनी और सियासी दाव-पेंच के बीच जब डर की तारीकी फैलती है, तब इस्लाम की रोशनी अपने अमली उसूलों से रास्ता दिखाती है: इंसाफ़ मुआमले का मरकज है, ताक़त क़ानून के आगे झुकती है, और इज़्ज़त-ए-इंसानी किसी सौदे का माल नहीं। यही वजह है कि वोना ने इस्लाम में सिर्फ रस्म नहीं, निज़ाम देखा—एक ऐसा निज़ाम जो बाज़ार के उतार-चढ़ाव और नुमाइश  से ऊपर समाजी जिम्मेदारी का एहसास दिलाता है, और जहां इख़्तियार के साथ जवाबदेही भी लाज़िमी है।

ग्लोबलाइज़ेशन की तेज़ रफ़्तार अक्सर दिलों को बेघर कर देती है—ज़ुबान बचती है मगर लहजा खो जाता है, मकान बनते हैं मगर घर वीरान होते हैं। इस पेश ए म्न्जर में इस्लाम की सबसे बड़ी ख़ूबी उसकी तौज़ीनी हिकमत है। 
 हक़ भी तुम्हारा, हद भी तुम्हारी; रिवायत भी क़ीमती, तज्दीद भी मंज़ूर—मगर मिज़ान से बाहर कुछ नहीं। सबकुछ एक दाएरे मे जहाँ हक के साथ जवाबदेही भी मुक़र्रर हो। क्योंके किसी को भी कोई इख़्तियार या वाहदा मिलता है तो उसके हिस्से मे उसकी जिम्मेदारी और जवाबदेही भी आती है। अगर आज कोई PM, CM को कुर्सी मिली है तो उसे जवाबदेही भी रहती है रियासत की। 
 यही मिज़ान उसे आख़िरी उम्मीद बनाती है—कि समाज ना तो जड़ हो, ना बिखराव का शिकार; वह चलने वाला भी रहे और संभलने वाला भी।
आज जब हर तरह के ज़दिदियत का दावा करने वाला फिक्र व नज़रिया सवालों के कटघरे में खड़ा है, इस्लाम अपने अमल से जवाब देता है: अद्ल करो, अमानत मे खयानत न करो, कमज़ोर का हाथ थामो, और ख़ुदा का खौफ़ अपने नफ़्स पर ज़ंजीर बनाए रखो। अगर कोई मज़हब इंसान को इस दर्जे की जवाबदेही और रहमत सिखाता है, तो उसके दामन से उम्मीद बांधना तअज्ज़ुब नहीं—यह तो फितरत की आवाज़ है। इसीलिए कहा गया कि अँधेरों में रोशनी की किरण वहीं से टूटती है जहाँ दिलों को सुकुन और समाज को सलीका मिलता है और यह सलीका इस्लाम की रूह से नूमायां होता है।

यूरोप के सियासी शोर में इस्लाम की पुकार.
2013 के उथल-पुथल भरे दौर में जब पहचान, मुहाजिर और अमन की बहसें सियासत पर हावी थीं, तब गाबोर वोना ने कहा कि असल टकराव मज़हब बनाम मज़हब नहीं, बल्कि रिवायत बनाम बे-लगाम लिबरल निज़ाम है. इसीलिए इस्लाम उन्हें आख़िरी उम्मीद दिखा, क्योंकि वह क़द्र-ओ-क़ीमत, ख़ानदान और जवाबदेही का पूरा निज़ाम ज़िंदा रखता है। उनकी नज़र में यूरोप का दर्द यह था कि आज़ादी की दौड़ में इंसान की रूह थक रही है; इस्लाम उस थकी हुई रूह को अद्ल, अमानत और हया से फिर ज़िंदा कर देगा, बेदार कर देगा.
लिबरलीज़म ने ईसाइयत को खतम कर दिया मगरिब् से, बहुत पुरानी और क़दीम धर्म हिंदू की असल पहचान और उसके फलसफे को निगल गया, इसी तरह दुनिया के हर छोटे मोटे मज़हब, रिवायत, तहजीब व शकाफत को आजगर जैसा निगल कर एक नज़रिया कायम किया के जो भी ऐसा करेगा या हमारा नकल करेगा वह ज़दीद, आज़ाद ख्याल और तरक्की करेगा जिसने हमारा कॉपी नही किया वह दकियानुसी, कदामत पसंद, शिद्दत पसंद, बुनियादी परस्त कहा जायेगा वगैरह। इस तूफान मे हर कोई उस हवा जी झोंके के साथ निकल गए के कही हमे पिछड़ा हुआ दकियानुसी न कहा जाए। इस खौफ के सबब सभी ने बगैर मुकाबला किये, कोई तहकीक किये, मंजिल के बारे मे जाने लिपट गए ताकि हमे भी उनमे शामिल कर लिया जाए। अब सब सभी लोगो ने अपनी हकीकी शिनाख्त (मूल पहचान) खुद ही मिटा दिया तो एक तरफ यह रौशन ख्याल वाले दूसरी तरफ इस्लाम बचा। अब वे लोग जब इस लिबरलीज़म का जायका का मजा ले लिए तो लगा के अब इस से हटकर दूसरी तरफ देखा जाए, जब उन्होंने इस्लाम के तरफ देखा तो ज़मीन तले पर खिसक गयी। वे अपने धर्म/मजहब बनाम इस्लाम समझते रहे तबतक लिबरलीज़म ने इन छोटे छोटे क़िले फतह कर लिया। चाहे वह इसायत हो या संतान धर्म, या कोई भी इनको सबसे आसानी से लिब्रालीज़म ने निगला है, अब वे भी अपनी वजूद की जंग लड़ रहे है मगर उनके अंगूठे से लेकर बाजू तक आज़ाद ख्याल का कब्ज़ा है। इनके खुद के शब् व रोज़ पर इख़्तियार नही, अब इस्लाम आखिरी किला है, इसलिए बहुत लोग चाहते है के जिस तरह कुँवे मे हम गिरे है उसी तरह वह (मुसलमान) भी गिरे। 
हम तो डूब ही चुके है सनम, तुम्हे भी ले डूबेंगे। 
जबकि ऐसे लोग है जिनमे से यूरोप के ज्यादातर लोग इसे इसायत बनाम इस्लाम नही, बल्कि लेफ्टिजम बनाम इस्लाम मानते है। वे इसके नब्ज़ को पकड़ लिए है, इसलिए वे अब इस्लाम की हिमायत करते है और उसे आखिरी उम्मीद की किरण बोलते है। इस्लाम उनके लिए उम्मीद की खुशी है। इसलिए इसे लिबरलीज़म बनाम धर्म समझे, नास्तिक बनाम धर्म (आस्तिक) समझे। चाहे वह हिंदू या ईसाई हो सभी को एक होकर इससे मुकाबला करना है। साइंस मे ऐसा कुछ नही है के उसे लेफ्टिज़म का किताब समझा जाए। कोई भी पढ़ेगा, तहकीकी करेगा तो तरक्की करेगा न के इसके लिए नास्तिक बनना पड़े, एक खास विचारधारा का मुरीद बने। इसलिए हिंदू भाईयो से यह दरखवासत् है के वे ईसे आस्तिक बनाम नास्तिक समझे, और वे सब एक हो इस लिबरलीज़म के खिलाफ। इस्लाम इसलिए उनके लिए आखिरी उम्मीद है। 
  
क्यों कहा गया यह बयान
- उस वक़्त का पेश ए मंजर पहचान की बेचैनी और प्रवासन की सियासत से घिरा था; वोट और खौफ़ के नैरेटिव में वोना ने रिवायती समाज की हिफ़ाज़त का रास्ता दिखाया।  
- उन्होंने माना कि मसला धार्मिक जंग नहीं, बल्कि तहज़ीबी इस्तिक़ामत की जंग है जहां इस्लाम ने दबाव में भी अपनी नैतिक ढांचे को नीलाम नहीं किया।  आजाद ख्याल, ज़दिदियत और लिबेलर्स के दह्शत के आगे खुद को लाचार, मजबुर और हकिर समझ कर हथियार नही डाला.

इस्लाम की वे ख़ूबियाँ जिन पर उम्मीद बंधी
- अख़लाक़ और क़ानून का यकसा निज़ाम: सिर्फ़ हक़ नहीं, फ़र्ज़ और जवाबदेही भी ताक़त क़ानून के आगे झुकती है, और इंसाफ़ मरकज़ में रहता है।  
 ख़ानदान और समाज की हिफ़ाज़त: रिश्तों, हया और अदब को बाज़ार की किमतो से ऊपर रखकर समुदाय को स्थिरता मिलती है।  
 रिवायत/ तहजिब/फलसफा की क़िला-बंदी: तेज़ ग्लोबल दबाव में भी पहचान, मिज़ान और तहज़ीबी वक़ार सलामत रहता है—यही “आख़िरी उम्मीद” का असल मानी है।  
जब बाज़ार का शोर ज़मीर पर हावी हो, तो इंसान अद्ल की पनाह ढूँढता है; और वही पनाह उसे इस्लाम के क़ानून, हया और अमानत के उसूलों में मिलती है।”

जो चीज़ें लिबरलिज़्म और महज़ नुमाइश वालि डेमोक्रेसी नहीं दे पाईं
- अर्थ-केन्द्रित फर्दियत से पुरे सामूहिक रिवायत का आसरा और नैतिक अनुशासन।  
- सत्ता और नागरिक (हुकुमत और अवाम) - दोनों पर अमानत की ज़ंजीर; इख़्तियार के साथ जवाबदेही का लाज़िम राब्ता।  
महज़ हक़ों की फेहरिश्त नहीं, बल्कि रोशनी देने वाला मिज़ाज—अद्ल, रहमत और इंसानी वक़ार को अमल में उतारने की तालीम।  
“जब समाज का ज़मीर थक जाए, इस्लाम अद्ल और अमानत से उसे फिर सीना सीधा करना सिखाता है—यहीं से उम्मीद का चिराग़ जलता है।”
 हक़ूक़ का शोर, रूह की ख़ामोशी — यूरोप का तजुर्बा और इस्लाम की उम्‍मीद
यूरोप से उठा लिबरलिज़्म इंसानी हक़ूक़, इख़्तियार और इन्फ़रादी आज़ादी का बुलंद पैगाम लेकर आया, मगर सदियों की दौड़ के बाद भी एक कमी चुभती रही—इंसान को क़ानूनी हक़ मिले, पर रूह को सुकून न मिला। वजह यह कि हक़ और हौसले की बात तो बहुत हुई, लेकिन फ़र्ज़, मिज़ान, ज़िम्मेदारि और जवाबदेही को वह वक़ार न मिल सका जो इंसानी नफ़्स को तहज़ीबी तौल देता है। 
यूरोप को क्या नहीं मिला?
ताक़त की पैरवी: मफाद के बाज़ार में “क्यों” का जवाब खो गया—खुशहाली के बावजूद मक़सद का सहरा, रिश्तों की गर्माहट और क़ुर्बत की लज़्ज़त कम होती गई।  
- फ़र्ज़ की ज़ंजीर: क़ानूनी हक़ मौजूद रहे, मगर फ़र्ज़ की कड़ी जहाँ न रहे, वहाँ इख़्तियार का सर चढ़ना, थकान और तन्हायि व बेरुखि, बेशर्मि की तल्ख़ी बढ़ी।  
 तअल्लुक़ की किला-बंदी: कम्युनिटी की दीवारें मज़बूत करने वाली रिवायतें घर, ख़ानदान, बुजुर्ग और इबादतगाह की मरकज़ियत—धीरे-धीरे हाशिये पर चली गईं।  
 इंसाफ़ का अमली एहसास: प्रोसिजरल डेमोक्रेसी ने ढाँचा दिया, मगर रोज़मर्रा के अमल में अद्ल की “रूह” को तवज्जोह कम मिली; कानून जिंदा रहा, लेकिन ज़मीर थकता रहा।  
इस्लाम से उम्मीद क्यों
- हक़ और फ़र्ज़ का मिज़ान: इस्लाम हक़ के साथ फ़र्ज़ को बराबरी पर रखता है—इख़्तियार को अमानत ठहराकर उसे जवाबदेही की ज़ंजीर पहनाता है; यही मिज़ान रूह को वज़न देता है।  
- अख़लाक़ का मरकज़: सच, अमानत, हया, रहमत और अद्ल—ये सिर्फ़ ख़ुतबे नहीं, अमली उसूल हैं; इबादत से लेकर मुआमलात तक इन्हें लागू करने की सिखलायी जाती है।  
- ख़ानदान और समाज की हिफ़ाज़त: निकाह, विरासत, पड़ोस के हक़, ज़कात-सदक़ा—कमज़ोर तक वसाइल पहुँचाने का मुहायदा; इससे कम्युनिटी महज़ नेटवर्क नहीं, बल्कि रहमत का दायरा बनती है।  
- इबादत से करेक्टर-तसकीन: नमाज़, रोज़ा, ज़कात, हज—ये “रिवाज” नहीं, नफ़्स की तरबियत के औज़ार हैं; दिल को सुकून और इरादे को नेक बना देते हैं।  
- पहचान की किला-बंदी: तेज़ ग्लोबल हवाओं में भी दीन एक सुई की तरह क़िबला दिखाता है—इंसान को मालूम रहता है कि कौन सा रास्ता रोशनी की तरफ़ जाता है।  
लिबरलिज़्म बनाम इस्लामी मिज़ाज.
- लिबरल निज़ाम इन्फ़रादियत को तरजीह देता है; इस्लाम इन्फ़रादियत और जमाअत दोनों का हक़ अदा करता है—न शख्स गुम हो, न मुअशरा बिखरे।  
- लिबरल ढाँचा बराबरी क़ानूनी तौर पर देता है; इस्लाम बराबरी के साथ नैतिक ताबेदारी और रहमत की तालीम देता है—कानून के अलावा ज़मीर भी जगे।  
- लिबरल मुअहिदे हक़ की ज़मानत हैं; इस्लाम हक़ के साथ इबादत और अख़लाक़ से दिल की तसल्ली देता है—सिर्फ़ नियम नहीं, रूहानी रोशनी भी।  

यूरोपीय तजुर्बे का दर्द और इस्लामी पेशकश
यूरोप ने हक़ूक़, तरक़्क़ी, सियासी आज़ादी और इंसानी शान के लिए बड़ी क़ुर्बानियाँ दीं—यह उस्का सरमाया है। मगर वहीँ दिल की थकावट, अकेलापन, पहचान की घबराहट, बेचैनि, तनग्मिजाज़ि, तन्हायि और मक़सद की खालीपन ने सवाल उठाया कि क्या महज़ आज़ादी काफ़ी है। 
इस्लाम कहता है—आज़ादी अहम है, मगर मिज़ान के साथ; इख़्तियार ज़रूरी है, मगर अमानत में; खुशहाली अच्छी है, मगर अद्ल की शर्त पर; मोहब्बत प्यारी है, मगर हया की हिफ़ाज़त के साथ। इस जोड़-तोड़ में नहीं, “जोड़ने” में सुकून है—और यही वजह है कि बहुत से दिल इस्लाम से उम्मीद बाँधते दिखते हैं। 
यह क़ौल युरोप के लिये आज सहि साबित हो रहा है.
हक़ देता है लिबरलिज़्म, मगर फ़र्ज़ की जंजीर इस्लाम पहनाता है—और इसी मिज़ान में रूह को सुकून, दिल् को तसल्लि, ज़मिर को ज़िंदा रखता है।” 
लिबरल जहन ने पहले ईसाइयत को नंगा किया, फिर हिन्दू तहज़ीब को निगल लिया,  और अब इस्लाम के दरवाज़े पर अपने नकली आज़ादी के झंडे लगाने आया है।  
ए मुसलमानो, याद रखो — जो अपने ईमान पर सौदा करता है, वो अपनी नस्ल का आख़िरी पहरेदार खो देता है।  इस वक़्त ज़रूरत है जागने की, नहीं तो आने वाले दौर में हम सिर्फ़ अफसाना बनकर रह जाएँगे।
Share:

No comments:

Post a Comment

Translate

youtube

Recent Posts

Labels

Blog Archive

Please share these articles for Sadqa E Jaria
Jazak Allah Shukran

POPULAR POSTS