Find All types of Authentic Islamic Posts in English, Roman Urdu, Urdu and Hindi related to Quran, Namaz, Hadeeth, Ramzan, Haz, Zakat, Tauhid, Iman, Shirk, Islah-U-Nisa, Daily Hadith, Hayat-E-Sahaba and Islamic quotes.

Chaukidar ayyash, Qazi dalal tab Hukumat Tawaifo ka Hota hai. Hind ke Nawabo se Arab ke Sheikh tak.

Jab Chaukidar Ayyash, Qazi Dalal ho tab Tawayefo ka Raaz hota hai. 

Jahan ke Hukamraan, wazir, Munsif sab Beimaan, Makkar aur Rishwakhor ho uska anjaam kya hoga.? 
When the Watchman Turns Debauched and the Qazi Becomes a Pimp: The Secret Reign of Courtesans"
Power, Money, Majority, and the Rise of Courtesans: A Tale of Corruption and Control.
This article explores how pimp,corrupt decay in positions of power—when the watchman becomes indulgent and the Qazi turns into a broker—leads to the hidden dominance of courtesans. 
Hidden reign of courtesans, Nawabs and Sheikhs, Political satire India, History of Mughals, Arab weakness, Courtesan power dynamics, Watchman corruption, Corrupt rulers, Indian History, moral of history, चौकीदार अय्याश,  क़ाज़ी दलाल, तवायफ़ों का राज, तवायफ का राज, राजनीति व्यंग्य, 
 चौकीदार बनता है अय्याश और क़ाज़ी दलाल: तवायफों की हुकूमत का राज.
जब चौकीदार अय्याश , क़ाज़ी दलाल तब  हुकूमत पर किसका राज?
चौकीदार अय्याश, तवायफ का राज, सत्ता और नैतिकता, राजनीति व्यंग्य, सामाजिक आलोचना, Moral decay in leadership, Nawabs and Sheikhs, Isalmic History, TArikh e Islam, Mughals History, Muslim Rules and empire,
Moral Lesson from Muslim History
जब चौकीदार अय्याश हो, क़ाज़ी दलाल हो, तब रियासत पर तवायफ़ों का राज होता है।"रियासत के ज़वाल की इबरत-अंगेज़ निशानीयह एक छोटा सा जुमला नहीं, बल्कि किसी भी मुल्क या निज़ाम के तबाह होने की एक मुकम्मल दास्तान है। 

सल्तनत का ज़वाल: जब मुहाफ़िज़ रास्ता भटक जाएँ किसी भी मुल्क या तहज़ीब की बुनियाद दो अहम सुतूनों पर क़ायम होती है: पहला, उसके निगहबानों (रखवालों) का मज़बूत किरदार और दूसरा, उसकी अदालतों का बेलाग इंसाफ़।
 तारीख़ गवाह है कि जब भी यह दोनों सुतून कमज़ोर पड़े हैं, तो सल्तनत की इमारत ज़मींदोज़ हो गई है। इसी हक़ीक़त को एक पुराने क़ौल में यूँ बयान किया गया है: "जब मुहाफ़िज़ अय्याश और मुंसिफ़ बिकाऊ हो जाए, तो हुकूमत पर तवाएफो का क़ब्ज़ा हो जाता है।"  यह क़ौल हमें बताता है कि किसी भी निज़ाम का ज़वाल उस वक़्त शुरू होता है, जब मुल्क की हिफ़ाज़त पर मामूर लोग अपने फ़र्ज़ से ग़ाफ़िल होकर ज़ाती ऐश-ओ-आराम और नफ़्सानी ख़्वाहिशात को ही अपना मक़सद बना लेते हैं। उनका किरदार जब दाग़दार हो जाता है, तो वे अवाम के हक़ूक़ की हिफ़ाज़त करने के बजाय ख़ुद उन हक़ूक़ को पामाल करने लगते हैं। यह सिर्फ़ सरहदों की हिफ़ाज़त में कोताही नहीं, बल्कि मुल्क के वसाइल (संसाधनों), अवाम की अमानत और क़ौमी ग़ैरत, वक़ार, खुद मुखतारी, रियाया की हिफ़ाज़त में नाकामी है।

यह एक ऐसी हक़ीक़त को बयान करता है जो तारीख़ के हर दौर में सच साबित हुई है। इस जुमले में तीन किरदार हैं—चौकीदार, क़ाज़ी और तवायफ़— जो महज़ अल्फ़ाज़ नहीं, बल्कि किसी भी रियासत के वजूद की बुनियाद और उसके अंजाम के गहरे इशारे हैं। 

चौकीदार का अय्याश होना: हिफ़ाज़त का ज़वाल"चौकीदार" से मुराद सिर्फ़ सरहदों पर खड़ा सिपाही नहीं, बल्कि रियासत का हर वह ज़िम्मेदार ओहदेदार है जिसके सुपुर्द अवाम की जान, माल और इज़्ज़त की हिफ़ाज़त है। इसमें हुक्मरान, फ़ौज, पुलिस और निज़ाम को चलाने वाले तमाम लोग शामिल हैं।  जब यह चौकीदार अपनी ज़िम्मेदारियों को भूलकर "अय्याश" हो जाए, यानी अपनी नफ़्सानी ख़्वाहिशात, ऐश-ओ-इशरत और ज़ाती मफ़ादात में गुम हो जाए, तो समझो रियासत की पहली दीवार गिर गई। एक अय्याश निगहबान अपनी ड्यूटी से ग़ाफ़िल हो जाता है। उसकी आँखें मुल्क की हिफ़ाज़त के बजाय अपनी लज़्ज़तों को तलाश करती हैं। ऐसे में दुश्मन, चाहे वह अंदरूनी हो या खारजी, मुल्क की बुनियादों में सेंध लगाने में कामयाब हो जाता है।

क़ाज़ी का दलाल होना: इंसाफ़ का सौदा (न्यायपालिका बिकाऊ) "क़ाज़ी" इंसाफ़ की अलामत है। वह अदालत का निज़ाम है जिसे हक़ और बातिल के बीच फ़ैसला करना है, मज़लूम को इंसाफ़ दिलाना है और ज़ालिम को सज़ा देनी है, मासूमो की हीफाजत करना लेकिन जब यही क़ाज़ी "दलाल" बन जाए, तो इसका मतलब है कि इंसाफ़ अब बिकने लगा है। अदालतें अब हक़ की आवाज़ सुनने के बजाय दौलत की खनक पर फ़ैसले सुनाती हैं। क़ाज़ी अब क़ानून का रखवाला नहीं, बल्कि ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी का सौदा करने वाला बन जाता है।

जब इस बद-उनवानी में इंसाफ़ का निज़ाम भी शरीक हो जाए—यानी अदालतें हक़ और सच का साथ देने के बजाय ताक़तवर और दौलतमंद के हक़ में फ़ैसले सुनाने लगें—तो समझो कि रियासत की रूह क़ब्ज़ हो चुकी है। इंसाफ़ की कुर्सी जब दलाली का अड्डा बन जाए, तो मज़लूम की आवाज़ खामोश हो जाती है और ज़ुल्म का साया हर तरफ़ छा जाता है। ऐसे माहौल में क़ाबिलियत, हुनर, और किरदार की कोई क़द्र नहीं रहती। हुकूमत और इक़्तिदार पर ऐसे लोग क़ाबिज़ हो जाते हैं जो अहल-ए-इल्म नहीं, बल्कि चापलूसी, मुखबिर, जासूस और ख़ुशामद के माहिर होते हैं। 
मुल्क के फ़ैसले दानिश्वरों के मशवरों से नहीं, बल्कि बंद कमरों की साज़िशों और ना-अहल, नाकारा, अय्याश, शख्शियत परस्त, मौका परस्त लोगों की महफ़िलों में होते हैं। यही "बाज़ारियों का राज" है, जहाँ हर चीज़ बिकाऊ होती है—इंसाफ़, वफ़ादारी, और यहाँ तक कि क़ौमी ग़ैरत भी।

 जिस रियासत में इंसाफ़ का सौदा होने लगे, वहाँ अवाम का यक़ीन और एयतेबार निज़ाम से उठ जाता है।

 मायूसी और बदहाली का अंधेरा हर तरफ़ फैलने लगता है, क्योंकि जब इंसाफ़ ही न मिले तो अमन की उम्मीद करना बेमानी है।

तवायफ़ों का राज: अख़लाक़ी मौत का ऐलान। 
जब हिफ़ाज़त करने वाले अय्याश और इंसाफ़ देने वाले दलाल हो जाएं, तो उसका क़ुदरती नतीजा "तवायफ़ों का राज" होता है। यहाँ "तवायफ़" से मुराद सिर्फ़ नाचने-गाने वाली नहीं, बल्कि यह उन तमाम बे-उसूल, बे-ग़ैरत, बे हया, मद-होश, शराबी, जानी, हुस्न परस्त, ख्वाहिश ए नफ्स का गुलाम, फाजिर व फाशीक और ख़ुशामदी लोगों की अलामत है जो अपनी सलाहियत से नहीं, बल्कि अपने जिस्म, ज़मीर और अख़लाक़ को बेचकर आगे बढ़ते हैं।
यह वह दौर होता है जब रियासत पर अहल-ए-इल्म और अहल-ए-हुनर के बजाय चापलूस, बद-किरदार और मौक़ापरस्त लोग क़ाबिज़ हो जाते हैं। 
हुक़ूमत के फ़ैसले उसूलों पर नहीं, बल्कि बंद कमरों की साज़िशों और महफ़िलों की रंगीनियों में होते हैं।

 क़ाबिलियत की क़द्र ख़त्म हो जाती है और इज़्ज़त का मेयार दौलत और ताक़त बन जाता है, चाहे वह किसी भी ज़लील तरीक़े से हासिल की गई हो। यह किसी भी रियासत की अख़लाक़ी और रूहानी मौत का सबसे बदतरीन मंज़र होता है।

तारीख़ के सबक़: हिंद से अरब तक

मुग़लिया सल्तनत का ज़वाल इस कहावत की जीती-जागती तफ़सीर है। अज़ीम शहंशाह, मालिक उल हिंद    रुस्तं ए ज़मां, सिकंदर ए दौरा औरंगज़ेब आलमगीर के बाद के बादशाह, जैसे मुहम्मद शाह 'रंगीला', इसका बेहतरीन नमूना थे।
यही हाल अवध के आख़िरी नवाब, वाजिद अली शाह का था। उनकी रियासत लखनऊ तहज़ीब और अदब का गहवारा ज़रूर थी, लेकिन हुक्मरान की हैसियत से वे अपने फ़र्ज़ को भूल चुके थे। उनका ज़्यादातर वक़्त अपनी बेगमात, पतंगबाज़ी और मुजरा की महफ़िलों में गुज़रता था।  हुक़ूमत के ओहदेदार अंग्रेज़ों के 'दलाल' बन चुके थे। दरबार में क़ाबिल वज़ीरों के बजाय ख़ुशामदी और मसख़रों (मसखरों) की तूती बोलती थी, जो रियासत को खोखला कर रहे थे। नतीजा यह हुआ कि अंग्रेज़ों ने अय्याशी का बहाना बनाकर एक जीती-जागती रियासत को बिना जंग लड़े हड़प लिया। यह "तवायफ़ों के राज" का ही नतीजा था, जहाँ उसूल और ग़ैरत के बजाय ख़ुशामद और चापलूसी का बोलबाला था

हिंदुस्तान की नवाबी रियासतों का अंजाम इसी हक़ीक़त की एक दर्दनाक मिसाल है। अवध और दूसरी रियासतों के आख़िरी दौर के नवाब अपनी हुकूमत की ज़िम्मेदारियों से ऐसे ग़ाफ़िल हुए कि उन्हें सल्तनत के अंदरूनी और बाहरी ख़तरात का एहसास तक न रहा।

 उनका दरबार अहल-ए-हुनर के बजाय ख़ुशामदी लोगों से भर गया था और इंसाफ़ का निज़ाम कमज़ोर पड़ चुका था। इसी का फ़ायदा उठाकर अंग्रेज़ों ने, जो महज़ ताजिर बनकर आए थे, पूरे मुल्क पर क़ब्ज़ा कर लिया। नवाबों की अय्याशी और उनके अमीरों की दलाली ने एक फलती-फूलती तहज़ीब को ग़ुलामी की ज़ंजीरों में जकड़ दिया। जब अँगरेज़ अपनी फौज की परेड करते थे, तब नवाब तवाएफो के महफिलो मे शराब व शबाब का लुत्फ़ लेते थे। शाम की महफ़िल  मे मुजरा करने वाली मल्लिका ए हुस्न के पाएलो की आवाज़, पैरो की कहकशां, रेशमी ज़ुल्फो, मेहंदी से रंगे हाथो से जाम लेते थे, पान नोश फरमाते थे। अंग्रेजो के मिलिट्री परेड की आवाज़ आती थी दूसरी तरफ नवाब के तरफ से पायेलो की आवाज़। 
फिरंगी सुबह परेड करते थे तब तक नवाब सोये रहते थे, फिर उठने के बाद शराब् से मूंह साफ करते थे। यह उनका रोज़ का मामूल् था, तर्ज ए जिंदगी बन गयी थी। 

आज के दौर में जब हम कुछ अरब हुक़्मरानों के हालात पर नज़र डालते हैं, तो तारीख़ ख़ुद को दोहराती हुई महसूस होती है। 

यहाँ "चौकीदार की अय्याशी" सिर्फ़ जिस्मानी ऐश-ओ-इशरत तक महदूद नहीं है। यह अय्याशी है अपनी क़ौम की दौलत (तेल और गैस) को अपने लोगों की तालीम, सेहत और ख़ुद-मुख़्तारी, असकरि कुव्वत पर सरफ करने के बजाय मग़रिबी मुल्कों में आलीशान महल ख़रीदने, फ़ुटबॉल क्लब चलाने और बे-मक़सद के मंसूबों में लुटाने की। यह हुक्मरान अपनी शरहद, अवाम की हिफ़ाज़त करने के बजाय अपने तख़्त को बचाने के लिए ग़ैर-मुल्की ताक़तों पर इनहिसार करते हैं। अरब अपनी शरहद से ज्यादा अपनी तख्त बचाने मे मसरूफ रहते है, ताकि कुर्सी का मजा ले। उनका किबला ए अव्वल मस्जिद ए अक्सा नही सलेबियो का वाइट हाउस है। वे आज के नये अंग्रेजो के कॉलोनी है, जिस तरह हिंदुस्तान मे अंग्रेजो ने राज किया उसी तरह अभी अरबो पर अमेरिका राज कर रहा है। उनका सारा फैसला सलेबियो के यहाँ से तैयार होकर आता है, वे ही शाही फरमान माने जाते है। वे अपाहिज बादशाह जिसकी हीफाजत अमेरिका ने लिए है, लेकिन वे इस्राएल के कब्जे से बैतुल मकदस् आज़ाद नही करा पाए, यहाँ तक के अमेरिका तब हीफाजत नही करता जब इस्राएल उसपर बोम्बारी करता है, बल्कि अमेरिका की इजाज़त से वे कतर से लेकर सभी अरब मुमलिक पर अपना धौंस दिखाते है। यह उनके ज़ेहनि गुलामी का नतीजा है जो दुसरो के फौजी कुव्वत पर खुद को मजफुज समझते है। 
अपनी ज़मीन और वसाइल (संसाधन) को दूसरों के हवाले करके ख़ुद को महफ़ूज़ समझते हैं। यही वजह है कि बेपनाह दौलत के बावजूद वे सियासी तौर पर "अपाहिज" या बेबस नज़र आते हैं—न तो वे उम्मत-ए-मुस्लिमा के किसी मसले पर खुलकर बोल पाते हैं और न ही अपने मुल्क के लिए कोई आज़ादाना फ़ैसला ले पाते हैं। क्योंके उनकी मौत और जिंदगी का मालिक अमेरिका (सलेबियो) के पास है, शाह फैसल का क़तल एक सियासी क़तल था, क्योंके उन्होंने सलेबियो की जी हुजूरी न करके तेल देना बंद कर दिया था। 

बेपनाह क़ुदरती दौलत के बावजूद, अगर हुक्मरान अपनी अवाम, शरहद और ख़ुद-मुख़्तारी के बजाय अपनी ताक़त को बचाने के लिए ग़ैर-मुल्की आक़ाओं पर इनहिसार करने लगें, तो यह भी एक क़िस्म की अय्याशी है। जब मुल्क की दौलत अपनी हीफाजत और सलामती पर ख़र्च होने के बजाय दूसरों के खजाने भरे और मुल्क के फ़ैसले यूरोप, अमेरिका, सलेबियो  से तय हों, तो यह भी "क़ाज़ी की दलाली" की एक जदीद शक्ल है। इसका नतीजा सियासी बेबसी और क़ौमी ज़िल्लत के सिवा कुछ नहीं निकलता।
कल जो निजाम और नवाब थे आज वही हाल अरब के शेखो का है। 
आज जो हिंद के मुसलमानो का हाल है वही कल अरब का होगा। 

जिस वक़्त अरब के पास कुछ नही था उस वक़्त हिंदुस्तान के मुसलमानो के पास हुकूमत थी, लेकिन उन्होंने वक़्त रहते इसकी कदर नही की, तो आज अंडे के ठेले और पंक्चर बना रहे है। अरब के पास वक़्त, माल ओ दौलत है तो उसकी कद्र नही.. फिर उनका भी अंजाम वही होगा। क्योंके वक़्त अगर  तब्दील नही होगा तो लोगो के पास सोचने और समझने की सलाहियत, खुद का मुहासबा नही करते। 
एक कमज़ोर वक़्त मजबूत शख्स बनाता है। 
एक मजबूत शख्स कमज़ोर नस्ल तैयार करता है। 
वही आने वाली कमज़ोर नस्ल कमज़ोर वक़्त बनाता है। 

हासिल-ए-कलाम (इबरत):

यह जुमला एक आईना है जो हमें दिखाता है कि किसी भी मुल्क / सलतनत/हुकूमत/ तख्त व ताज की असल ताक़त उसकी फ़ौज या ख़ज़ानों में नहीं, बल्कि उसके निगहबानों के किरदार और उसकी अदालतों के इंसाफ़ में पोशीदा है। जब यह दोनों सुतून कमज़ोर पड़ते हैं, तो रियासत की इमारत का ज़मींदोज़ होना तय हो जाता है। तारीख़ गवाह है कि बड़ी-बड़ी सल्तनतें सिर्फ़ इसलिए तबाह हो गईं क्योंकि उनके चौकीदार अय्याश और क़ाज़ी दलाल हो गए थे। 
किसी भी क़ौम का उरूज और ज़वाल उसके हुक्मरानों और निज़ाम-ए-अद्ल के किरदार से वाबस्ता है। जब तक यह दोनों अपनी ज़िम्मेदारियों को ईमानदारी से निभाते हैं, मुल्क तरक़्क़ी करता है। लेकिन जब यह दोनों बद-उनवानी का शिकार हो जाते हैं, तो उस क़ौम को दुनिया की कोई ताक़त तबाही से नहीं बचा सकती।
तारीख़ बार-बार यह सबक़ सिखाती है कि जब भी किसी क़ौम के रहनुमा अपने फ़र्ज़ से ग़ाफ़िल होकर अय्याशी, ख़ुद-ग़रज़ी और ख़ुशामद में पड़ जाते हैं, तो उस क़ौम का ज़वाल यक़ीनी हो जाता है। चाहे वह मुग़लों का दौर हो या आज की दुनिया, उसूल हमेशा एक ही रहता है: एक ग़ैरतमंद और बा-असर क़ौम की पहचान उसके चौकीदार के किरदार और क़ाज़ी के इंसाफ़ से होती है। 
कल के नवाब आज के अरब के शेख है, आज के हिंद के मुसलमान जैसा कल के अरब के अवाम होंगे। 

यह हर दौर और हर क़ौम के लिए एक इबरत की निशानी है। 

Share:

6 comments:

  1. Indian history se bhi sikhna jaruri hai.

    ReplyDelete
  2. bahut kuch sikhata hai hame yah sab

    ReplyDelete
  3. bahut achi baat hai. aaj chaukidar chor hai.

    ReplyDelete
  4. Chaukidar chor hai. Neta dalal hai aur Court Kotha hai aaj ka. court ka Judge Dalal hai, court nahi kotha hai. kothe ka dalal judge.

    ReplyDelete
  5. court jab kotha ban jaye to uspe bhrose ka koi matlab nahi rahta hai. court matlab kotha, Judge Dalal aur Chaukidar chor to tawayefo ka raaj.

    ReplyDelete
  6. Zor se bolo #chaukidarchor hai.

    ReplyDelete

Translate

youtube

Recent Posts

Labels

Blog Archive

Please share these articles for Sadqa E Jaria
Jazak Allah Shukran

POPULAR POSTS