*अबू जहल" ला-इलाहा-इल्लल्लाह " का मतलब जानता था आज का कलमा गो मुशरिक नहीं जानता"*
अबू जहल जानता था, ला-इलाहा-इल्लल्लाह, पढ़ लिया तो लात छोड़ना पड़ेगा, मनात, उज़्जा, हुबल छोड़ना पड़ेगा,
बुज़ुर्गों के बुतों के सामने मन्नतें मांगना छोड़ना पड़ेगा,
बुज़ुर्गों के वसीले और सीढ़ियाँ डालना छोड़ना पड़ेगा,
बुज़ुर्गों के बुतों पर चढ़ावे छोड़ना पड़ेगा,
बुज़ुर्गों के अख्तियार की नफ़ी करना पड़ेगी, अकेले अल्लाह को मुख्तार-ए कुल मानना पड़ेगा,
अबू जहल, ला-इलाहा-इल्लल्लाह, का मतलब जानता था इसी लिये कलमा नहीं पढ़ता था,
लेकिन
आज का मुशरिक, ला-इलाहा-इल्लल्लाह, भी पढ़े जाता है, या अली मदद, या गौश मदद भी पुकारे जाता है,
ला-इलाहा-इल्लल्लाह, भी पढ़े जाता है क़ब्रों पर चढ़ावे भी चढ़ाये जाता है
ला-इलाहा-इल्लल्लाह, भी पढ़े जाता है मज़ारों वाले के वसीले भी डाले जाता है,
ला-इलाहा-इल्लल्लाह भी पढ़े जाता है अनगिनत शिर्किया बोलीयां भी बोले जाता है,
हक़ीक़त यह है कि उस दौर के मुशरिक से आज का कलमा गो मुशरिक ज़्यादा बुरा है,
अबू जहल से आज का मुशरिक बदतर है
क्योंकि आज के मुशरिक ने कलमा पढ़ कर अल्लाह और उसके रसूल (ﷺ) से बे-वफ़ाई की है.....
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