एक मुस्लिम भाई ने अपने एक ग़ैर मुस्लिम मित्र को इस्लाम की दावत दी एवं कुछ चोटी के विद्वानों द्वारा लिखित कुछ पुस्तकें भी उपहार स्वरूप दीं !
कुछ दिनों के बाद दोनों की भेंट हुई और मुस्लिम ने अपने मित्र के विचार जानने चाहे तो उसने कहा __
" वास्तविक रूप से मुझे इस्लाम के विषय में अब जो जानकारी प्राप्त हुई है जिसके लिए मैं आपका आभारी हूं किन्तु मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं है कि जिस महान धर्म का पालन आप दूसरों से कराना चाहते हैं उसका लेशमात्र अंश भी मुझे आप में दिखाई नहीं देता !
आपकी ही प्रदान की हुई पुस्तकें यह कहती हैं कि इस्लाम केवल कुछ विचारों अथवा कुछ पूजा पद्धति तक सीमित नहीं है अपितु यह पूर्ण रूप से मानवीय जीवन पर आधारित है , मानवता का कोई भी पहलू ऐसा नहीं है जिस पर इस्लाम ने प्रकाश न डाला हो , कोई मानवीय समस्या ऐसी नहीं है जिसका इस्लाम में समाधान न हो , कोई मानवीय आवश्यकता ऐसी नहीं है जिसकी पूर्ति करने में इस्लाम असमर्थ हो ।
जब इस्लाम एक सम्पूर्ण जीवन व्यवस्था है तो आप स्वयं उसे क्यों नहीं अपनाते !
आपकी पुस्तकें कहती हैं कि इस्लाम सबके लिए है !
मेरा प्रश्न है कि इस्लाम यदि सबके लिए है तो स्वयं आपके अपने लिए क्यों नहीं ?
आपकी अपनी जीवन शैली ही इस्लाम के विरुद्ध है , हिन्दू धर्म की भांति आपके समाज में भी मनुष्य कर्म से नहीं बल्कि जन्म से ही ऊंचा , नीचा , मध्यमवर्गीय अथवा शूद्र होता है जबकि इस्लाम की सामाजिक व्यवस्था इसके बिलकुल विपरीत है वहां सब कुछ कर्म पर आधारित है , जन्म के आधार पर वहां ऊंच नीच नहीं है !
अब बात करते हैं आपकी वैवाहिक पद्धति की जिसमें केवल एक निकाह ही इस्लामिक वस्तु है इसके अलावा आपकी सम्पूर्ण वैवाहिक शैली हिंदुओं के समान है , हिन्दू समाज की कोई रस्म ऐसी नहीं जो आपके समाज में न हो !
आपके नबी साहब ने शिक्षा प्राप्ति पर जितना ज़ोर दिया है उतना संसार में किसी ने नहीं दिया परन्तु खेद का विषय है कि सर्वाधिक अनपढ़ और जाहिल आपके ही समाज में मिलते हैं !
इस्लाम ने आर्थिक समृद्धि एवं सामाजिक समरसता हेतु ज़कात को सम्पन्न वर्ग के लिए अनिवार्य कर दिया है किन्तु ये लोग नाम मात्र की ज़कात निकाल कर ही इतिश्री कर लेते हैं जिसके कारण आपके समाज में दरिद्र एवं भिखारी सबसे अधिक हैं !
आपकी पुस्तकें नबी के अख़लाक़ से भरी पड़ी हैं , जिनके बारे में कहा जाता है कि संसार की बहुत सी कौमों ने उन्हें अपने जीवन में ढाल कर ही सफलता प्राप्त की किन्तु हमें आपके अन्दर नबी साहब के अख़लाक़ दूर दूर तक दिखाई नहीं देते , लड़ने झगड़ने , मार पीट एवं गाली गलौज में तो आपकी क़ौम को दक्षता प्राप्त है ।
अतः ये पुस्तकें वापिस ले जाइए और पहले ख़ुद इनका अनुसरण कीजिए और अपने धर्मावलंबियों से कराइये , जब आप लोग स्वयं इस्लाम के चलते फिरते आदर्श दुनिया को दिखाई देंगे तो किसी को पुस्तकें देने की आवश्यकता ही नहीं होगी लोग ख़ुद ब ख़ुद आपकी ओर आकर्षित होंगे आपसे प्रभावित हो कर इसलाम को जानना और समझना चाहेंगे , अभी तो आपके कारण ही लोग इस्लाम के नाम से दूर भागते हैं , पहले आप ख़ुद को मुसलमान बना लीजिए दूसरों की चिंता बाद में कीजिए और मेरी इस कटु टिप्पणी के लिए मुझे क्षमा कर दीजिए ;____
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