Zaira Wasim Kyu Khatam Ki Filmi Duniya Se Apni Talluq Aur USki Wajah Kya Btayi?
फ़िल्म 'दंगल' और 'सीक्रेट सुपरस्टार' जैसी फ़िल्मों से चर्चित हुईं बाल अदाकारा ज़ायरा वसीम ने बॉलीवुड को अलविदा कह दिया है. फ़ेसबुक पर लिखी एक लंबी पोस्ट में उन्होंने कहा है कि अपने धर्म और अल्लाह के लिए ये फ़ैसला ले रही हैं.
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Zaera Wasim in Secret Super Star Movie |
ظایرا وسیم نے اپنی فلمی دنیا سے کیو الوداع کہا؟
ﯾﮧ ﮨﮯ ﺍﻧﮉﯾﺎﻥ ﺍﯾﮑﭩﺮﺱ ﻇﺎﺋﺮﮦ ﻭﺳﯿﻢ (Zaira waseem) ﺟﺲ ﻧﮯ ﻋﺎﻣﺮ ﺧﺎﻥ ﮐﯽ ﭘﮩﻠﯽ ﻓﻠﻢ
ﺩﻧﮕﻞ ﻣﯿﮟ ﻣﯿﻦ ﺭﻭﻝ ﺍﺩﺍ ﮐﯿﺎ ﺍﻭﺭ ﯾﮧ ﻓﻠﻢ ﭘﻮﺭﯼ ﺩﻧﯿﺎ ﻣﯿﮟ ﮐﺎﻣﯿﺎﺏ ﮨﻮﮔﺌﯽ۔ ﭘﺎﮐﺴﺘﺎﻥ
ﭼﺎﺋﯿﻨﮧ ﺍﻭﺭ ﯾﻮﺭﭖ ﺳﻤﯿﺖ ﭘﻮﺭﯼ ﺩﻧﯿﺎ ﺳﮯ ﺩﻭﺳﻮ ﮐﺮﻭﮌ ﺭﻭﭘﮯ ﮐﻤﺎ ﮔﺌﮯ ﺍﻭﺭ ﺍﻥ ﮐﻮ
ﺍﻧﮉﯾﺎ ﻣﯿﮟ ﺑﯿﺴﭧ ﺍﯾﻮﺍﺭﮈ ﺳﮯ ﺑﮭﯽ ﻧﻮﺍﺯﺍ ﮔﯿﺎ۔ ﭘﮭﺮ ﺍﺳﮑﮯ ﺑﻌﺪ ﺍﺳﮑﯽ ﺳﯿﮑﺮﯾﭧ ﺳﭙﺮ
ﺳﭩﺎﺭ ﻧﺎﻣﯽ ﻓﻠﻢ ﺁﮔﺌﯽ ﺍﻭﺭ ﻭﮦ ﺩﻧﮕﻞ ﮐﻮ ﺑﮭﯽ ﭘﯿﭽﮭﮯ ﭼﮭﻮﮌ ﮔﺌﯽ ﺍﻭﺭ ﻭﮦ ﻧﻮ ﺳﻮ ﮐﺮﻭﮌ
ﺭﻭﭘﮯ ﮐﻤﺎﮔﺌﯽ۔ ﻣﮕﺮ ﺁﺝ ﺍﭼﺎﻧﮏ ﺍﺱ ﻟﮍﮐﯽ ﻧﮯ ﻓﻠﻤﯽ ﮐﯿﺮﺋﯿﺮ ﺳﮯ ﮨﻤﯿﺸﮧ ﮐﮯ ﻟﺌﮯ ﺍﺳﺘﻌﻔٰﯽ
ﺩﮮ ﺩﯾﺎ ﺍﻭﺭ ﻭﮦ ﺑﮭﯽ ﺍس ﻮﻗﺖ ﺟﺐ ﺍﺳﮑﯽ ﺷﮩﺮﺕ ﻋﺮﻭﺝ ﭘﺮ ﺗﮭﯽ۔ ﺍﻧﮑﮯ ﺳﭩﯿﭩﻤﻨﭧ ﻣﯿﮟ ﻧﮯ
ﺍﺳﯽ ﭘﯿﮑﭽﺮﻭﮞ ﻣﯿﮟ ﺍﭘﻠﻮﮈ ﮐﺮﺩﯼ ﮨﮯ ﺧﻮﺩ ﺩﯾﮑﮫ ﺳﮑﺘﮯ ﮨﯿﮟ ﯾﺎ ﺍﺳﮑﮯ ﺍﻧﺴﭩﺎ ﮔﺮﺍﻡ ﺁﺋﯽ
ﮈﯼ ﺑﮭﯽ ﺩﯾﮑﮫ ﺳﮑﺘﮯ ﮨﯿﮟ ﮐﮧ ﺍﻧﮩﻮﮞ ﻧﮯ ﺧﻮﺩ ﯾﮧ ﺳﭩﯿﭩﻤﻨﭧ ﺩﯼ ﮨﮯ۔
ﺍﻧﮑﺎ ﮐﮩﻨﺎ ﮨﮯ ﮐﮧ ﻣﯿﺮﯼ ﻋﺰﺕ ﻧﻔﺲ ﺩﻥ ﺑﺪﻥ ﻣﺠﺮﻭﺥ ﮨﻮﺭﮨﯽ ﺗﮭﯽ۔ ﭘﯿﺴﮧ ﺍﻭﺭ ﺷﮩﺮﺕ ﻋﺮﻭﺝ
ﭘﺮ ﮨﻮﻧﮯ ﮐﮯ ﺑﺎﻭﺟﻮﺩ ﻣﯿﺮﯼ ﺯﻧﺪﮔﯽ ﻣﯿﮟ ﺭﻭﺯ ﻧﺌﯽ ﻧﺌﯽ ﭨﯿﻨﺸﻦ ﺟﻨﻢ ﻟﮯ ﺭﮨﯽ ﺗﮭﯽ۔ ﺗﺐ
ﻣﯿﮟ ﻧﮯ ﺍﭘﻨﮯ ﺁﭖ ﭘﺮ ﺗﻮﺟﮧ ﺩﮮ ﺩﯾﺎ ﮐﮧ ﺍﯾﺴﺎ ﮐﯿﺎ ﮨﮯ ﺟﻮ ﻏﻠﻂ ﮨﻮﺭﮨﺎ ﮨﮯ ﺍﻭﺭ ﻭﮦ ﺗﮭﯽ
ﻣﯿﺮﯼ ﮐﻤﺎﺋﯽ ﺟﻮ ﮐﮧ حرام ﮐﯽ ﮐﻤﺎﺋﯽ ﺗﮭﯽ۔ ﺍﻭﺭ ﺍﻧﮩﻮﮞ ﻧﮯ ﮐﭽﮫ ﻗﺮﺍﻧﯽ ﺁﯾٰﺘﻮﮞ ﮐﺎ
حوالہ ﺑﮭﯽ ﺩﮮ ﺭﮐﮭﺎ ﮨﮯ۔ ﮐﮧ ﺍﺧﺮﺕ ﮐﮯ ﺩﻥ ﻣﯿﮟ ﺍﭘﻨﮯ ﺧﻀُﻮﺭ ﺻﻠّﯽ ﺍﻟﻠّٰﮧُ ﻋَﻠﯿﮧٖ
ﻭَﺍٓﻟٖﮧ ﻭَﺳّﻠَﻢ ﮐﻮ ﮐﯿﺎ ﺟﻮﺍﺏ ﺩﻭﻧﮕﯽ ﮐﮧ ﻣﯿﮟ ﻧﮯ ﮐﺲ ﮐﮯ ﻧﻘﺶ ﻗﺪﻡ ﭘﺮ ﭼﻞ ﮐﺮ ﺯﻧﺪﮔﯽ
ﮔﺰﺍﺭﺩﯼ ﮨﮯ۔ ﺍﻧﮑﯽ ﺗﺨﺮﯾﺮ ﺑﮩﺖ ﻟﻤﺒﯽ ﮨﮯ۔
ﻏﺮﺽ ﯾﮧ ﻟﮍﮐﯽ ﺁﺟﮑﻞ ﮐﯽ ﻣﺎﮈﺭﻥ ﻟﮍﮐﯿﻮﮞ ﮐﮯ ﻟﺌﮯ ﺍﯾﮏ ﻣﺜﺎﻝ ﮨﮯ ﮐﮧ ﺍﺳﮑﯽ ﮐﺎﻣﯿﺎﺑﯽ
ﺍﺳﻼﻣﯽ ﻃﺮﯾﻘﻮﮞ ﺍﻭﺭ ﺍﺳﻼﻣﯽ ﺗﻌﻠﯿﻤﺎﺕ ﻣﯿﮟ ﮨﮯ۔ ﺍﻟﻠﮧ ﮐﯽ ﺑﺘﺎﺋﯽ ﮨﻮﺋﯽ ﻃﺮﯾﻘﻮﮞ ﺳﮯ
ﺍﻧﮑﺎﺭ ﮐﺮﻭﮔﮯ ﺗﻮ ﺍﻟﻠﮧ ﺗﻤﮭﯿﮟ ﺗﻤﮭﺎﺭﯼ ﺩﻭﻟﺖ ﺍﻭﺭ ﺷﮩﺮﺕ ﺳﻤﯿﺖ ﺫﻟﯿﻞ ﻭﺧﻮﺍﺭ ﮐﺮﮮ ﮔﺎ۔
ﺍﻧﮑﯽ ﺍﺧﮑﺎﻣﺎﺕ ﮐﯽ ﺑﺠﺎﻭﺭﯼ ﮐﺮﻭﮔﮯ ﺗﻮ ﻏﺮﺑﺖ ﮐﯽ ﺩﻟﺪﻝ ﻣﯿﮟ ﭘﮭﻨﺲ ﮐﺮ ﺑﮭﯽ ﺍﻟﻠﮧ ﺗﻤﮭﯿﮟ
ﺳﺮ ﺧﺮﻭ ﺭﮐﮭﮯ ﮔﺎ۔
ﺧﺪﯾﺚ ﻗﺪﺳﯽ ﮨﮯ۔ ﺍﻟﻠﮧ ﺍﭘﻨﮯ بندہ ﺳﮯ ﻓﺮﻣﺎﺗﺎ ﮨﮯ ﮐﮧ
ﺍﯾﮏ ﺗﯿﺮﯼ ﭼﺎﮨﺖ ﮨﮯ ﺍﻭﺭ ﺍﯾﮏ ﻣﯿﺮﯼ ﭼﺎﮨﺖ ﮨﮯ
ﮐﺮﺩﻭ ﻗﺮﺑﺎﮞ ﺍﭘﻨﯽ ﭼﺎﮨﺖ ﮐﻮ ﻣﯿﺮﯼ ﭼﺎﮨﺖ ﭘﮯ
ﭘﮭﺮ ﻣﯿﮟ ﺗﻤﮭﯿﮟ ﻭﮦ ﺑﮭﯽ ﺩﻭﻧﮕﺎ ﺟﻮ ﺗﯿﺮﯼ ﭼﺎﮨﺖ ﮨﮯ
ﻧﺎ ﮐﯿﺎ ﺍﯾﺴﺎ ﺟﻮ ﻣﯿﺮﯼ ﭼﺎﮨﺖ ﮨﮯ
ﭘﮭﺮ ﻣﯿﮟ ﺗﻤﮭﯿﮟ ﺗﮭﮑﺎﺩﻭﻧﮕﺎ ﺑﮭﮕﺎﺩﻭﻧﮕﺎ ﺗﯿﺮﯼ ﭼﺎﮨﺖ ﻣﯿﮟ
ﺍﻭﺭ ﮨﻮﮔﺎ ﭘﮭﺮ ﺑﮭﯽ ﻭﮨﯽ ﺟﻮ ﻣﯿﺮﯼ ﭼﺎﮨﺖ ﮨﮯ
ﺍﻟﻠﮧ ﮨﻢ ﺳﺐ ﮐﻮ ﺩﯾﻦ ﺍﺳﻼﻡ ﭘﺮ ﺻﺨﯿﺦ ﻣﻌﻨﻮﮞ ﻣﯿﮟ ﭼﻠﻨﮯ ﮐﯽ ﺗﻮﻓﯿﻖ ﺩﮮ ﺩﯾﮟ۔ ﺁﻣﯿﻦ ﺛﻤٰﮧ ﺁﻣﯿﻦ
पढ़िए उनके पोस्ट के अहम हिस्से
पाँच साल पहले मैंने एक फ़ैसला किया था, जिसने हमेशा के लिए मेरा जीवन बदल दिया था. मैंने बॉलीवुड में क़दम रखा और इससे मेरे लिए अपार लोकप्रियता के दरवाज़े खुले. मैं जनता के ध्यान का केंद्र बनने लगी. मुझे क़ामयाबी की तरह पेश किया गया और अक्सर युवाओं के लिए रोल मॉडल बताया जाने लगा.
Zaira Wasim original Post on Facebook
हालांकि मैं कभी ये नहीं करना चाहती थी और ऐसा नहीं बनना चाहती थी. ख़ासकर क़ामयाबी और नाकामी को लेकर मेरे विचार ऐसे नहीं थे, जिन्हें मैंने खोजना और समझना शुरू ही किया था.
आज जब मैंने बॉलीवुड में पांच साल पूरे कर लिए हैं तब मैं ये बात स्वीकार करना चाहती हूं कि इस पहचान के साथ, यानी अपने काम के साथ सच में ख़ुश नहीं हूं. लंबे अर्से से मैं ये महसूस कर रही हूं कि मैंने कुछ और बनने के लिए संघर्ष किया है.
मैंने अब उन चीज़ों को खोजना और समझना शुरू किया जिन चीज़ों के लिए मैंने अपना समय, प्रयास और भावनाएं समर्पित की हैं. इस नई लाइफ़स्टाइल को समझा तो मुझे अहसास हुआ कि भले ही मैं यहां पूरी तरह से फिट बैठती हूं, लेकिन मैं यहां के लिए नहीं बनीं हूं.
इस क्षेत्र ने मुझे बहुत प्यार, सहयोग और तारीफ़ें दी हैं लेकिन ये मुझे गुमराही के रास्ते पर भी ले आया है. मैं ख़ामोशी से और अनजाने में अपने ईमान से बाहर निकल आई.
मैंने ऐसे माहौल में काम करना जारी रखा जिसने लगातार मेरे ईमान में दख़लअंदाज़ी की. मेरे धर्म के साथ मेरा रिश्ता ख़तरे में आ गया. मैं नज़रअंदाज़ करके आगे बढ़ती रही और अपने आप को आश्वस्त करती रही कि जो मैं कर रही हूं सही है और इससे मुझ पर फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है. मैंने अपने जीवन से सारी बरकतें खो दीं.
बरकत ऐसा शब्द है जिसके मायने सिर्फ़ ख़ुशी या आशीर्वाद तक ही सीमित नहीं है बल्कि ये स्थिरता के विचार पर भी केंद्रित है और मैं इसे लेकर संघर्ष करती रही हूं.
मैं लगातार संघर्ष कर रही थी कि मेरी आत्मा मेरे विचारों और स्वभाविक समझ से मिलाप कर ले और मैं अपने ईमान की स्थिर तस्वीर बना लूं. लेकिन मैं इसमें बुरी तरह नाकाम रही. कोई एक बार नहीं बल्कि सैकड़ों बार. अपने फ़ैसले को मज़बूत करने के लिए मैंने जितनी भी कोशिशें कीं, मैं वही बनी रही जो मैं हूं और हमेशा अपने आप से ये कहती कि जल्द ही मैं बदल जाऊंगी.
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Zaira Wasim in Secret Super Star Movie |
मैं लगातार टालती रही और मैं अपनी आत्मा को इस विचार में फंसाती रही और छलती रही कि मैं जानती हूं मैं जो कर रही हूं वो सही नहीं लग रहा. लेकिन एक दिन जब सही समय आएगा तो मैं इस पर रोक लगा दूंगी. ऐसा करके मैं लगातार ख़ुद को कमज़ोर स्थिति में रखती, जहां मेरी शांति, मेरे ईमान और अल्लाह के साथ मेरे रिश्ते को नुक़सान पहुंचाने वाले माहौल का शिकार बनना आसान था.
मैं चीज़ों को देखती रही और अपनी धारणाओं को ऐसे मोड़ती रही जैसे मैं चाहती थी, बिना ये समझे कि मूल बात ये है कि उन्हें ऐसे ही देखा जाए जैसी की वो हैं.
मैं बचकर भागने की कोशिशें करती और आख़िरकार बंद रास्ते पर पहुंच जाती. इस अंतहीन सिलसिले में कुछ था जो मैं खो रही थी और जो लगातार मुझे प्रताड़ित कर रहा था, जिसे न मैं समझ पा रही थी और न ही संतुष्ट हो पा रही थी.
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Zaira Wasim Who acts in Secret Super Star and Dangal Movie by Aamir Khan |
जब तक मैंने अपने दिल को अल्लाह के शब्दों से जोड़कर अपनी कमज़ोरियों से लड़ने और अपनी अज्ञानता को सही करने का फ़ैसला नहीं किया.
क़ुरान के महान और आलौकिक ज्ञान में मुझे शांति और संतोष मिला. वास्तव में दिल को सुकून तब ही मिलता है जब इंसान अपने ख़ालिक़ के बारे में, उसके गुणों, उसकी दया और उसके आदेशों के बारे में जानता है.
मैंने अपनी स्वयं की आस्तिकता को महत्व देने के बजाय अपनी सहायता और मार्गदर्शन के लिए अल्लाह की दया पर और अधिक भरोसा करना शुरू कर किया
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मैंने जाना कि मेरे धर्म के मूल सिद्धांतों के बारे में मेरा कम ज्ञान और कैसे पहले बदलाव लाने की मेरी असमर्थता, दरअसल दिली सुकून और ख़ुशी की जगह अपनी (दुनियावी और खोखली) इच्छाओं को बढ़ाने और संतुष्ट करने का नतीजा थी.
मेरा दिल शक़ और ग़लती करने की जिस बीमारी से पीड़ित था उसे मैंने पहचान लिया था. हमारे दिल पर दो बीमारियां हमला करती हैं. संदेह और त्रुटि और दूसरी हवस और इच्छाएं. इन दोनों का ही क़ुरान में ज़िक्र है.
अल्लाह कहता है, "उनके दिलों में एक बीमारी है (संदेह और पाखंड) की जिसे मैंने और ज़्यादा बढ़ा दिया है." मुझे अहसास हुआ कि इसका इलाज सिर्फ़ अल्लाह की शरण में जाने से ही होगा और वास्तव में जब मैं रास्ता भटक गई थी तब अल्लाह ही ने मुझे हार दिखाई.
क़ुरान और पैग़ंबर का मार्गदर्शन मेरे फ़ैसले लेने और तर्क करने की वजह बना और इसने ज़िंदगी के प्रति मेरे नज़रिए और ज़िंदगी के मायने को बदल दिया.
हमारी इच्छाएं हमारी नैतिकता का प्रतिबिंब हैं. हमारे मूल्य हमारी आंतरिक पवित्रता का बाहरी रूप हैं. इसी तरह क़ुरान और सुन्नत के साथ हमारा रिश्ता, अल्लाह और धर्म के साथ हमारे रिश्ते और हमारी इच्छाओं, मक़सद और ज़िंदगी के मायने को परिभाषित करता है.
मैंने कामयाबी को लेकर अपने विचार, अपनी ज़िंदगी के मायने और मक़सद के गहरे स्रोतों को लेकर सावधानीपूर्वक सवाल किया. सोर्स कोड जिसने मेरी धारणाओं को प्रभावित किया, वो अलग आयामों में विकसित हुआ.
कामयाबी का हमारे पक्षपाती, भ्रमित, पारंपरिक और खोखले जीवन मूल्यों से सह-संबंध नहीं है. हमें क्यों बनाया गया इसके मक़सद को समझ लेना ही कामयाबी है. हम अपनी आत्मा को धोखा देकर गुमराही में आगे बढ़ते रहते हैं और ये भूल जाते हैं कि हमें क्यों बनाया गया है.
ये यात्रा थकाऊ रही है, लंबे समय से मैं अपनी रूह से लड़ती रही हूं. ज़िंदगी बहुत छोटी है लेकिन अपने आप से लड़ते रहने के लिए बहुत लंबी भी है. इसलिए आज मैं अपने इस फ़ैसले पर पहुंची और मैं अधिकारिक तौर पर इस क्षेत्र से अलग होने की घोषणा करती हूं.
यात्रा की कामयाबी आपके पहले क़दम पर निर्भर है. मेरे सार्वजनिक तौर पर ऐसा करने का कारण अपनी पवित्र छवि निर्माण करना नहीं है बल्कि मैं एक नई शुरूआत करना चाहती हूं और उसके लिए कम से कम मैं ये कर सकती हूं. अपनी इच्छाओं के सामने समर्पण मत करो क्योंकि इच्छाएं अनंत हैं और हमेशा उससे बाहर निकलो जो आपने हासिल किया है.
Zaira Wasim On Facebook Pages
"5 years ago I made a decision that changed my life forever. As I stepped
my foot in Bollywood, it opened doors of massive popularity for me. I
started to become the prime candidate of public attention, I was
projected as the gospel of the idea of success and was often identified
as a role model for the youth. However, that’s never something that I
set out to do or become, especially with regards to my ideas of success
and failure, which I had just started to explore and understand.
As I
complete 5 years today, I want to confess that I am not truly happy
with this identity i.e my line of work. For a very long time now it has
felt like I have struggled to become someone else. As I had just started
to explore and make sense of the things to which I dedicated my time,
efforts and emotions and tried to grab hold of a new lifestyle, it was
only for me to realise that though I may fit here perfectly, I do not
belong here. This field indeed brought a lot of love, support, and
applause my way, but what it also did was to lead me to a path of
ignorance, as I silently and unconsciously transitioned out of imaan.
While I continued to work in an environment that consistently interfered
with my imaan, my relationship with my religion was threatened. As I
continued to ignorantly pass through while I kept trying to convince
myself that what I was doing is okay and isn’t really affecting me, I
lost all the Barakah from my life. Barakat is word whose meaning isn't
just confined to happiness, quantity or blessing, it also focuses on the
idea of stability, which is something I struggled with extensively.
I was constantly battling with my soul to reconcile my thoughts and
instincts to fix a static picture of my iman and I failed miserably, not
just once but a hundred times. No matter how hard I tried to wrestle to
firm my decision, I ended up being the same person with a motive that
one day I will change and I will change soon. I kept procrastinating by
tricking and deluding my conscience into the idea that I know what I am
doing doesn’t feel right but assumed that I will put an end to this
whenever the time feels right and I continued to put myself in a
vulnerable position where it was always so easy to succumb to the
environment that damaged my peace, iman and my relationship with Allah .
I continued to observe things and twist my perceptions as I wanted them
to be, without really understanding that the key is to see them as they
are. I kept trying to escape but somehow I always ended up hitting a
dead end, in an endless loop with a missing element that kept torturing
me with a longing I was neither able to make sense of nor satisfy. Until
I decided to confront my weakness and began to strive and correct my
lack of knowledge and understanding by attaching my heart with the words
of Allah. In the great and divine wisdom of the Quran, I found
sufficiency and peace. Indeed the hearts find peace when it acquires the
knowledge of Its Creator, His Attributes, His Mercy and His
commandments.
I began to heavily rely upon Allah’s mercy for my help
and guidance instead of valuing my own believability. I discovered my
lack of knowledge of the basic fundamentals of my religion and how my
inability to reinforce a change earlier was a result of confusing my
heart's contentment and well being with strengthening and satisfying my
own (shallow and worldly) desires. I discovered my disease of doubt
& error that my heart was afflicted with- There are 2 types of
diseases that attack the heart, one; DOUBT and Error and the second;
LUST and Desire. Both are mentioned in the Quran.
Allah says, “ In
their hearts is a disease (of doubt & hypocrisy) and Allah increased
their disease. [Quran 2:10]. And I realized the remedy to this could
only be attained through the guidance of Allah and indeed Allah guided
my path when I lost my way.
Quran and the guidance of Allah’s
messenger (PBUH) became the weighing factor in my decision making and
reasoning and it has changed my approach to life and it’s meaning.
Our desires are a reflection of our morals, our values are an
externalization of our internal integrity. Similarly, our relationship
with the Quran and Sunnah defines and sets the tone of our relationship
with Allah and our religion, our ambitions, purpose and the meaning of
life. I carefully questioned the deepest sources of my ideas of success,
meaning and the purpose of my life. The source code that governed and
impacted my perceptions evolved into a different dimension. Success
isn’t correlated with our biased, delusional and conventional shallow
measures of life. Success is the accomplishment of the purpose of our
creation. We have forgotten the purpose we were created for as we
ignorantly continue to pass through our lives; deceiving our conscience.
“And That the hearts of those who don’t believe in the hereafter, may
incline to it (the deception) and that they may be well pleased with it
and that they may earn what they are going to earn, (and it’ll be evil).
[Quran 6:113]
Our purpose, our righteousness or terribleness isn’t
defined by our selfish consumption, it isn’t equated by the worldly
measures. Allah says, “I swear (by Al-Asr) by time (that’s running
out). Verily, man is drowning in great loss, with the exception of (a
few) those who believe , do good deeds and call on another to the way of
truth and counsel one another to patience and perseverance. [Quran
103]
This journey has been exhausting, to battle my soul for so
long. Life is too short yet too long to be at war with oneself.
Therefore, today I arrive at this well-grounded decision and I
officially declare my disassociation with this field. The success of the
journey is dependent on how you take the first step and the reason why I
am openly doing so is not to paint a holier picture of myself but this
is the least I can do to start afresh and this is just my first step as I
have arrived at the clarity of realisation of the path I wish to be on
and strive for and during this time I may have consciously or
unconsciously planted a seed of temptation in the hearts of many but my
sincere advice to everyone is that no amount of success, fame, authority
or wealth is worth trading or losing your peace or the light of your
Imaan for. Strive not to surrender to your desires for desires are
infinite and always leap out ahead of whatever has just been achieved.
Do not deceive yourself or become deluded and find believability in the
self assured biased narratives of the principles of deen-where one
conceals the truth while knowing it or where one picks and chooses to
accept only what suits his situation or desires the best. Sometimes we
have deep flaw in our iman and we often cover it up with words and
philosophies. What we say is not in our hearts and we seek every manner
of excuse for clinging to it and indeed He is aware of the
contradictions, He is aware of all the thoughts unspoken for He is
All-Hearing (As-Sami), the All-Seeing (Al-Baseer), and the All-Knowing
(Al-Aleem). “And Allah knows what you conceal and what you reveal”.
[Quran 16:19]. Instead of valuing your own deceptive conviction, make
genuine efforts to strive and discover and understand the truth yourself
with a heart full of faith and sincerity. “O you who have believed, if
you are conscious of Allah, He will give you the ability to distinguish
right from wrong”. (Quran 8:29).
Don’t look for role models or
measures of success in the displeasure of Allah and the transgressions
of His commandments. Do not allow such people to influence your choices
in life or dictate your goals or ambitions. The Prophet said, “A person
will be (raised on the day of Judgement) with whom he loves.” And do not
become arrogant to seek advice from the better informed but position
yourself away from your ego and arrogance and rely only on Allah’s
guidance, indeed only He is the turner of the hearts and the ones He
guides, none can lead astray. Not everyone has the conscience or the
conscious to recognise the what we need to know or change and hence, it
is not for us to judge, abuse, belittle or mock such people. It is our
responsibility to make a positive impact by reinforcing the correct
understanding by reminding each other. “And remind, for indeed the
reminder benefits the believers” (Quran 51:55).
And we must do so
not by ramming facts down each others throats by abuse or hostile
behaviour or through violent disapprovals but it can only be done
through kindness and mercy that we can affect the people around us. [If
you see that one of you has slipped, correct him, pray for him and do
not help the shaytan against him by insulting or mocking him- Umar Ibn
Al-Khattaab]
But before we do that we must remember to exemplify
Islam and it’s understanding ourselves in our knowledge and in our
hearts, actions, intentions and behaviour and then use it to benefit the
ones lack grasp on the fundamentals of the religion in terms of
understanding, beliefs and manners . And remember that when you will
start your journey or to find your ground in His Commandments- you are
going face hardships, resistance, ridicule or discomfort from others and
sometimes it can come from people who you love and are the closest to
you. Sometimes it can be because of how you have been acting previously
or have acted all your life, but do not let it discourage you or lead
you to lose hope in Allah’s mercy and guidance- for He is Al-Hādīy (The
Guide). Do not let your previous actions stop you from seeking
repentance, know that He is Al-Ghafaar (The repeatedly forgiving).
Truly, Allah loves those who turn unto Him in repentance and loves those
who purify themselves. [Quran, 2:222]. Do not let the judgement,
ridicule, abuse, words or fear of people take you off from the path of
you wish to be on or stop you from expressing yourself to the fullest,
remember He is Al-Walīy the helper. Do not let the worry of tomorrow get
in your way to reassess your life, for he is Ar-Ražzaq (The Provider).
It can be a tough, complicated and sometimes an unimaginably lonely path, especially in today’s time but remember
the Messenger of Allah (PBUH) said: “There will come upon the people a
time when holding onto the religion will be like holding onto hot coal.”
May Allah guide our boats to find its shore and help us to
distinguish between truth and deception. May Allah makes us strengthen
us in our Imaan and make us amongst the ones who engage in His
remembrance and make our hearts firm and help us to remain steadfast.
May Allah give us a better understanding of His wisdom and allow us to
exhibit our efforts to alleviate doubt and error at individual levels
and guide each other. May Allah cleanse our hearts from hypocrisy,
arrogance and ignorance and rectify our intentions and grant us
sincerity in speech and in our deeds. Ameen"
-Zaira Wasim
Original Post of Muslim actress Zaira Wasim On Instagram