भारत की स्वतंत्रता में संपारदायिकता कितनी बाधक थी?
किस तरह सांप्रदायिक समस्याओं के कारण पाकिस्तान की मांग उठी?
जवाब - भारत के लोगो की आजादी की कभी न बुझने वाली प्यास ब्रिटिश प्रेस और राजनीतिज्ञ का ध्यान अपनी ओर खींचने में उतनी कामयाब न हो सकी जितनी की भारत की संपारदायिकता।
आजादी के रास्ते में इस संपरदायिकता ने बहुत बड़ा रोड़ा अटकाया। आजादी मिलने से पहले तो भारत सांप्रदायिकता का घर ही था।
सांप्रदायिक विचारो वाले हिंदू , मुसलमान, सीख , ईसाई सभी अपनी अपनी संस्थाओं को बढ़ावा देते थे।
ऐसे हालात में राष्ट्रीयता कैसे पनप सकती थी?
लोगो की जो ताकत राष्ट्रीयता और राष्ट्र की भलाई में खर्च होनी चाहिए थी , वह तंग सांप्रदायिकता की ओर मुड़ गई।
दरअसल में सांप्रदायिकता ने राष्ट्रीय आंदोलन के मार्ग में बहुत अधिक अड़चने पैदा की।
यही वजह है की इसे स्वाधीनता के रास्ते का सबसे बड़ा बाधक कहा जाता है।
भारत में सांप्रदायिक विचारो का जन्म दो शक्तियों के बीच संघर्ष के परिणामस्वरूप हुआ।
एक शक्ति भारत में बढ़ती हुई राष्ट्रीयता की भावना थी, दूसरी ब्रिटिश साम्राज्यवाद की, जो राष्ट्रीय भावना को ही उखाड़ फेंकने पर उतारू थी। इसी के नतीजे सांप्रदायिकता का विकास हुआ।
J P सुधा के शब्दो में " जब राष्ट्रीयता की लहर तेजी से बढ़ने लगी तो ब्रिटिश सरकार ने सांप्रदायिक जहर द्वारा इसे बर्बाद करने का तरीका अपनाया "
इसलिए यह स्पष्ट है के भारत में राष्ट्रीय आंदोलन को दबाने के लिए ही सांप्रदायिकता का विकास किया गया था।
जब भारत में राष्ट्रीयता की लहर तेज हुई तो अंग्रेजो ने घबड़ाकर कमजोर मुस्लिम समाज को ब्रिटिश शासन के पक्ष में करने और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन से अलग रखने का सफल कोशिश किया।
ब्रिटिश शासकों द्वारा विभाजन द्वारा शासन करने, एक संप्रदाय को दूसरे संप्रदाय के विरुद्ध उभारने और उन्हें एक राष्ट्र के रूप में संगठित न होने देने की नीति अपनाई।
East india company के शासनकाल में गवर्नर को Mount Stuart Elephinston ने एक बार लिखा था " फुट डालकर शासन करना रोम की प्राचीन परंपरा थी और हमे भी उसी का अनुसरण करना चाहिए "
इसलिए अंग्रेजो ने 19 सदी में यही ' Divide and Rule ' की नीति अपनाई।
इसी समय मुस्लिम राजनीति में सर सैय्यद अहमद खान का आगमन हुआ। शुरुआत में सर सैय्यद राष्ट्रवादी थे और हिंदू मुसलमान एकता के समर्थक थे।
मगर बाद में वे राष्ट्रीय आंदोलन से अलग हो गए और संप्रदायवादी (Communalist) बनकर मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन से अलग कर दिया, जो पक्के राष्ट्रवादी थे।
संक्षेप में , संपर्दायिकता की यह भावना , वस्तुतः स्वाधीनता आंदोलन के काम में बहुत बाधक सिद्ध हुई।।
मुस्लिम लीग की स्थापना तो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में बहुत बड़ी घातक सिद्ध हुई।
1906 में ढाका में देश के विभिन्न भागों में मुसलमान प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन हुआ।
इसमें अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की नीव डाली गई।
इसके संस्थापक कुछ ऐसे मुसलमान थे , जिनका उद्देश्य मुसलमानों के पढ़े लिखे और मध्यम वर्ग को उस भयंकर राजनीति में शामिल होने से रोकना था जी कांग्रेस अपना रही थी।
इस तरह अपने जन्म से लीग एक सांप्रदायिक संस्था के रूप में काम करती रही।
जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग और भी मजबूत संस्था बन गई। यहां तक कि सिंध प्रांतीय मुस्लिम लीग के वार्षिक सम्मेलन (1938) में जिन्ना ने जब समझौते द्वारा पाकिस्तान प्राप्ति की उम्मीद नहीं देखी तो उन्हों प्रत्यक्ष कार्यवाही का सहारा लिया।
19 जुलाई 1946 को अपनी एक सभा में लीग ने यह कहकर कांग्रेस की निंदा की के वह अंग्रेजो की मदद से हिंदू राज्य बनाने पर तुली हुई है।
जिन्ना ने अपने भाषण में कहा " अपने प्रत्यक्ष कार्यवाही के प्रस्ताव द्वारा मुस्लिम लीग संघर्ष के वैधानिक साधनों को तिलांजलि दे रही है। " भारत के सभी भागों में 16 अगस्त को प्रत्यक्ष संघर्ष मनाया गया।
इस मौके पर कोलकाता में सांप्रदायिक दंगो की आग भड़क उठी।
कोलकाता के Statesman ने इसपर टिप्पणी की थी। " भारत के इस प्रमुख नगर में जो खूनी हाल उपस्थित हुआ उसका उदाहरण कहीं नहीं है। "
कोलकाता में मुस्लिम लीग द्वारा की गई अमानुषिकता का असर नोवाखाली में भी पड़ा।
इससे समस्त नागरिक जीवन संकटग्रस्त बन गया। देश की आंतरिक स्थिति बिगड़ती जा रही थी। मुसलमानों के नेता सुहारवर्दी ने कहा " मुसलमान मरासन्न जाती नही है और उनका संघर्ष जारी रहेगा "
बॉम्बे ( मुंबई ) के इस्लाम नेता चंद्रीगर ने कहा, " अंग्रेजो को मुसलमानों को ऐसे लोगो के हाथो में सौंपने का अधिकार नहीं है जिनपर खुद मुसलमानों ने सालो तक शासन किया।
इससे स्पष्ट है के सांप्रदायिक सोच के कारण राष्ट्रीय आंदोलन के विकास में काफी मुश्किलें आई।
इस स्वतंत्रता को भारत पहले ही प्राप्त कर चुका होता लेकिन उसे हासिल करने में समय लगा।
वैसे भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, लेकिन इसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। वह कीमत है - भारत का विभाजन।
कांग्रेस ने इस बात का अनुभव किया के विभाजन के प्रस्ताव को स्वीकार करने के बाद उसे सांप्रदायिक झगड़ो से हमेशा के लिए मुक्ति मिल जाएगी।
इसलिए कांग्रेस को विभाजन का प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा।
वाह आपने बहुत अच्छी जानकारी दी है, सही बात है धर्म की वजह से ही अंग्रेजो ने हमे बांटा था।
ReplyDeleteIt's a great article for every Indians those who always fight for own Religion. Nice
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