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Islam ke Khilaf European Propganda Quran jalana.

Sweden aur Denmark me Propganda of Freedom of expresson.

Sweden me bar bar Quran kyu jalaya jata hai, Ise kaun log support karte hai?

Shikari aur Shikar yani Musalman aur Christian.

Muslim Mulko me Khilafat islamic system kaise laya jaye?

New world order ya Jewish world Order.

Islamic tarike se Khawateen ko kaise Padhaya jaye.

Qustuntuniya par Musalmano ki fatah.

मुस्लिम मुल्को ने इस्लाम को अपना दस्तूर माना लेकिन अमल नही
मागरिबि मुल्को ने अक़ल को अपना दस्तूर माना तो अमल भी किया।

तुम्हारी तहज़ीब अपने ख़ंजर से आप ही ख़ुद-कुशी करेगी।
जो शाख़-ए-नाज़ुक पे आशियाना बनेगा ना-पाएदार होगा

ज़ाहिर सी बात है के नई नस्ले इस्लाम के मुतालिक बद्गुमानिया और वस्वसे पालती और मागरिब के मुतालिक़ अच्छे ख्यालात।
आज यूरोप इस्लाम विरोधी हरकतो को खूब जोर शोर से फैला रहा है, वह आधुनिकता, उदारवादी और लिबरल मंसिकता के नाम पर इस्लाम और मुसलमान विरोधी मुहिम चला रहा है।

कभी फ्रांस मे नबी की शान मे गुस्ताखी की जाती है, कार्टून बनाया जाता है।
कभी स्पेन, नॉर्वे, स्वेडेन, डेनमार्क जैसे बातील और फिरंगी मुल्को मे कुरान जलाकर अपनी आज़ादी का मुजाहेरा किया जाता है। ये खुद को लिबरल, वामपंथी, उदारवादी तबका और आज़ाद ख्याल वाले कहलाते है।

इनकी आज़ादी और इज़हार ए राय कुरान को आग के हवाले करके ही पूरी होती है, इसमे सरकार और मग्रिबि विचारधारा का हाथ है जो हमेशा मुसलमानो के ख़िलाफ प्रोपगैंडा चलाया जाता है।

ये नाम निहाद सेकुलर और लिबरल सोच वाले इस्लाम विरोधी अभियान चलाने को अपनी आज़ादी बताते है।
दुसरो के धर्म का मज़ाक बनाना आसान काम है जिससे ये अपनी आज़ादी समझते है।

किसी ट्रांसजेंडर पर यह कुछ नही बोलते है, वरना
Homophobic कहा जायेगा।
किसी औरत पर कुछ भी नही कहा जा सकता है वरना उस महिला विरोधी कहा जायेगा
Misogynist

आप ऐसा न सोचे के ऐसी सोच वाले लोग सिर्फ यूरोप मे ही है, ऐसे हरकतो को दबी चुपी आवाज़ मे यहाँ भी स्पोर्ट दिया जाता है, ये कुछ नामनिहाद देसी लिबरल भी उन्ही यूरोपियन को अपना रहनुमा और रहबर समझते है जो स्विडेन मे कुरान की बे अदबि करने को आज़ादी बता रहे है।
यह आधुनिक, उदारवादी कुरीतिया सिर्फ इस्लाम के खिलाफ ही क्यो आज़माया जाता है। कभी आप ने सोचा है।
हीन्द्, पाक, बंगलादेश जैसे मुल्को मे एक तबका हमेशा आज़ादी आज़ादी नारा देते रहता है।
ये आज़ादी गैंग यूरोप के नकश् ए कदम पर चलते है।
यह मॉडर्न, उदार, आज़ाद ख्याल और साइंस से शुरू करते है अपना मुहिम।

शुरू मे जो अंजान है उसे चांद और सितारों पर पहुँचने मे मिले कामयाबी के पीछे का राज कुछ ऐसे बतायेंगे।

दुनिया चाँद तारो पर चली गयी, मंगल ग्रह पर इंसान बस रहा है और आप वही के वही है।

यानि ये लोग चाँद पर पहुँचने के लिए बातिल , नँगापन, हमजिंसीयत को जिम्मेदार बताते है।
अगर आप नँगा हो जाए, बे गैरत बन जाए, अपने दिन और किताब को आग लगाए, मज़ाक बनाये, गालिया दे तो आप फिर आसमान पर जा सकते है, साइंस और टेक्नोलॉजी मे आगे बढ़ सकते है।

ये लोग इसकी शुरुआत औरतों की तालीम, रोजगार से शुरू करते है। औरतों की तालीम का तहरिक यूरोपियन पैटर्न पर चलाते है.... उसे तालीम कम.. दिन से, असल मकसद से, उसके मजहबी किताब से, आलिम ए दिन से दिल मे नफरत ज्यादा बैठाते है। क्योंके इनका असल सच छुपा रहता है इसलिए कोई जब दीन की बातें बताता है तो उसे रूढ़ीवादी, पुरानी सोच वाला कहकर मजाक बना दिया जाता है ताकि इसका हौसला यही पस्त कर दे। जबकि इस्लाम ने औरतों को पढ़ने से मना नही किया मगर तालीम जो मग्रिबियत के सिलेबस मे है वह कुफ्र और बेग़ैरति की तरफ ले जाता है।

जब यह अपनी ज़मीन शुरुआती दौर मे तैयार कर लेते है फिर औरतों की आज़ादी के नाम पर उसे आज़ाद महसूस कराने और वेल एडुकेटेड कहलाने के लिए यह शर्त रखा जाता है बरहना लिबास पहनो फिर तुम्हे दुनिया आज़ाद ख्याल कहेगी वरना मर्दो की गुलाम कहलओगी, यानी आप कितना भी पढ़ ले जबतक मगरिब् के तहजीब पर नही चलेंगे तब तक जाहिल गंवार है। ये लोग हर जगह इख़्तिएलाफ पैदा कर के एक पक्ष को अपने साथ रख कर दूसरे के खिलाफ खडा करते है ताकि दरार पैदा किया जा सके और यहाँ से शुरू होता है जेंडर वार।

ये तालीम के साथ साथ मर्दो के खिलाफ भी उसका ब्रेनवाश करते है और जब स्टेप बाय स्टेप ट्रेनिंग मुकम्मल हो जाता है फिर उसे दुनिया के सामने दूसरी लड़कियो के लिए आदर्श बनाकर पेश करते है।
इसमे मर्द और औरत दोनो शामिल है, लेकिन इस सोच को फैलाने के लिए समाज मे औरतों को अपना मूहरा बनाते है, यानी नारी उत्थान (women empowerment) से शुरू करते है।

स्वीडेन मे जो कुरान जलाया जा रहा है उधर भी इसी तरह शुरुआत हुआ, जैसे हिंद पाक मे शुरू किया गया है। यहाँ औरतों की आज़ादी के बाद अब हमजिंसीयत की तरफ कदम बढ़ाया जायेगा जो के इस्लाम मे हराम है। फिर उसी आज़ादी की शुरुआत होगी जो शार्ली हेब्दो, और डेनमार्क मे आज हो रहा है।

ऐसे मुनफ़ीकीन् देसी लिबरल की पहचान कैसे करे।

देसी लिबरल थ्योरी

यह हमेशा अपने मुल्क के बनिसबत यूरोप को बेहतर बतायेंगे, वहाँ का मिशाल देकर वैसे कानून यहाँ भी नाफ़िज़ करवाएंगे, जैसे ट्रांसजेंडर एक्ट व homosexuality, इज़हार ए राय की आज़ादी बगैर रोक टोक के (मगर इनके डेमोक्रेसी, यूरोपियन सिस्टम पर तंकिद नही कर सकते है बाकी आपको जितना इस्लाम के खिलाफ बोलना है बोले इस्लाम विरोधी नही कहलाएंगे, उदारवादी कहलाएंगे। हा आप अपने मजहब, दिन और तहजीब का प्रचार या इजतैमाइ तौर पर कुछ भी नही कर सकते वरना कट्टरपंथी, दकियानुसी कहे जायेंगे, आप महिला विरोधी, सामलैंगिक विरोधी कह जा सकते है)

ये अपने मुल्क और अमेरिका का मसला हो तो अमेरिका के साथ खड़े होंगे,
इसराइल व फिलिस्तीन का मसला हो तो इसराइल के साथ खड़े होंगे, वैसे आम दिनों मे ये इंसानी हुकूक और जम्हूरियत की आवाज़ खूब उठाएंगे अपने मुल्क की हुकूमत से मगर इसराइल के ज़ुल्म पर खामोश रहेंगे क्यों वह इसलिए के इसराइल के साथ अमेरिका खडा है।
इराक अमेरिका का मसला होगा तो फ़ौरन अमरीकी खेमे मे जायेंगे और उसके दूसरे पक्ष को आतंकवाद और दहशत गढ़ बोलेंगे।
अफगान अमेरिका का मामला हो तो ये पूरे अफगानी को कट्टरपंथी कहेंगे दूसरे तरफ हमलावर अमेरिका को अमन पसंद।
युक्रेन रूस का मामला होगा तो युक्रेन का साथ देंगे, दलील यह के रूस ने युक्रेन पर हमला किया, लेकिन सच यह नही है सच यह है के युक्रेन के साथ अमेरिका इंग्लैंड खडा है। अगर हमला करने वाला रूस दहशत गर्द है तो अमेरिका' इराक, अफगान, वियतनाम जैसे देश पर हमला करके अमन पसंद कैसे बन गया?
इनको इसराइल, इंग्लैंड, डेनमार्क सब हक पर नजर आता है, मुसलमानो के इख़्तेलाफ को फिरक़ परस्ती कहते है,  इत्तेहाद हो जाए तो कहते है "हम आप के इत्तेफाक को नही मानते"।

एक वाइट अमेरिकन पुलिस के बर्बरता से जॉर्ज फ्लॉयड मारा गया
अमरीका मे #BlackLivesMatter प्रोटेस्ट हुआ अमेरिका मे पुलिस की बर्बरता पर खूब चर्चा हुई सबने मरने वाले से अपनी संवेदना  दिखाई। 
किसी ने बाइबल या अमेरिका का संविधान या वहां के राष्ट्रपति की तस्वीर नहीं जलाई।

ईरान मे मोरालिटी पुलिस के हिरासत मे महसा अमीनी की मौत हुई हंगामा हुआ खूब प्रोटेस्ट हुआ पुलिस के साथ साथ ईरान की सरकार इस्लाम क़ुरान सब टारगेट हुआ ( ईरान मे इस्लामी हुकूमत नहीं है )
पूरी दुनया ने महसा अमीनी के साथ अपनी संवेदना प्रकट की। (आगजनी हुआ, नंगे प्रोटेस्ट किया, इसके समर्थन पर भारतीय मीडिया मे औरतें बाल काटने लगी,  actores हमदर्दी दिखाने लगी। )

फ्रांस मे वहां की पुलिस ने 17 साल के निहाल मरजूक को पॉइंट ब्लेंक से गोली मार दी
ममला पुलिस बर्बरता के साथ साथ उनके एक गन्दी जेहनियत का था
प्रोटेस्ट हुआ हंगामा हुआ
पूरी दुनिया अमेरिका और ईरान के मामले जैसे निहाल को अपनी संवेदना देती फ्रांस सरकार और उसकी पुलिस के हरकत पर सवाल करती मगर ऐसा हुआ नहीं उल्टा मुसलमानो के वुजूद पर माईगरेंट मुसलिम पर सवाल होने लगा और भारत मे तो इसका अलग ही सीन है। कुछ आतंकवादी मीडिया ने मुसलमानो के खिलाफ नफ़रत के लिए इसको कैचा कर लिया।

ऐसा क्यों है के पूरी दुनिया मुसलमानो के मामले मे दोगला रवैया रखती हैं?
क्यूँ मुसलमानो के मामले मे लोग सारा सिद्धांत सारी इंसानियत भूल जाते है ?

सोचिएगा जरुर.....

मगर सारी तथाकथित आज़दिया, सेकुलरिज्म और अभिवायक्ति की स्वतंत्रा का बोझ कुरान जलाकर ही हलका किया जाता है। यह मगरीबि प्रोपगैंडा है इस्लाम के खिलाफ।

मगर मुसलमान नवजवानो का क्या हाल है?

इसलामी एडुकेशं को बेकार करार दिया और अगर पढाया भी जाता तो एक मामूली और बिना जरूरत का किताब समझा जाने लगा।

हिंदुस्तान, पाकिस्तान के तरफ के मुसलमानो ने इस्लाम को शादी, बराती, मैय्यत और मुहर्रम तक ही जरूरी समझा। बाकी दिनों मे फिरंगियों के दस्तारखवाँ पर छोड़े हुए हड्डीयो को गले का हार बना लिया।

दिनी तालीम को सिर्फ मस्जिद के इमाम और उलेमा तक ही जरूरी समझा जाने लगा।

ऐसे मौलवियो ने भी इस्लाम को इस तरह पेश किया के सिर्फ इस्लाम मे नमाज, रोजा, कुरान खवानी जैसे बिद्दत्, ज़कात व खैरात और हज्ज्  ही फ़र्ज़ है। बाकी सारी उमर गोश्त की बोटिया नोचते रहो और एक सर पर टोपी, कुर्ता व पजामा पहन लो हो गए मुसलमान।

जिहाद एक सआदत थी मगर इसको जुर्म करार दिया गया।
जिहाद एक इबादत थी मगर इसको फसाद करार दिया गया।

जिहाद एक जरूरत थी मगर इसको बेकार करार दिया गया।
जिहाद नुसरत का दरवाजा था मगर हम ने खुद बंद कर दिया।

जिहाद रहमत की बारिश थी मगर छतरिया लगा ली गयी
जिहाद शहादत की राह थी जो बंद कर दी गयी।

उम्मत ए मुस्लेमा को बहादुर और बेदार लोगो की जरूरत है।

ऐसा कहा जाता है के अफसर ज़र्मन  (ज़र्मनी का रहने वाला) हो और लड़ने वाले तुर्क हो तो सारी दुनिया फतह कर लेंगे। वज़ह यह बताई जाती है के तुर्क बहादुर है मगर ग़ाफ़िल है और ज़र्मनी इतने बहादुर नही मगर बेदार है।

यह हिकायत बयां करने का मकसद यह था के हर मुसलमान को चाहिए के वह बहादुर भी बने और बेदारी का मुजाहेरा भी करे। आज हम अपनी तादाद को देख कर फखर महसूस करते है लेकिन हकीकत यह है के हम बेदार नही है बल्कि अपनी गफलत का शिकार है, हम अपने आप को, अपनी तारीख को, अपने अस्लाफ को भूल चुके है। इसी गफलत की नींद ने गैरो को अपनी चाल चलने के लिए आज़ादी फराहम कर दी।

हमारी गफलत और बुझ्दिली का ही नतीजा है के आज मुसलमान गुलामी का शिकार है, जो लोग खुद को आज़ाद समझते है वह बाकी मुसलमानो के खातिर की जद्दो जेहद् नही करना चाहते, हर कोई बहाने बनाये बैठा हमारा यह मजबूरी.... वह मजबूरी

शहर में आग लगा के मुझे तसल्ली है , ज़रा सा शोर मचा के मुझे तसल्ली है।
डरा रहा था उजाले में आइना मुझ को, चिराग घर के बुझा के मुझे तसल्ली है।

एक ही जिंदगी है, कुछ कर दिखाओ, रोज क़यामत सुरखुरु होंगे वरना यह दुनिया तो हाथ से निकल चुकी, आखि़रत मे भी अफसोस का शिकार होंगे।

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Islam And Democracy: Kya Islam me Jamhuriyat (Democracy) Ki koi Gunzaish hai?

Islam aur Western Rulling System Democracy.

Kya Islam me Democracy ka koi tasawwur hai?
Islami Democracy aur Western Democracy kya hai?

Sawal: Islam me Jamhuriyat (Democracy) Ki koi Gunzaish hai ya nahi..?  Kyunke mere mutabik Democracy Ki hukumat me Aazad khyali aur Lafz Aazadi ki wazah se Musalman tamam hado ko par kar jate hai. Jabki deen Ghar tak mahdud ho jata hai. Islam n ek Be Mishal Mazhab hai balki is me Khuda ke Kanoon nafij hai aur Islam me ek Hadd me rahte hue Aazadi bhi di gayi hai. Baraye Meharbani Jawab inayat farmaye.

Education ke nam par Europe ka Culture Dron.

Hollywood ki "Sex Symbol" ke aakhiri waqt ke Jumle.

Musalman jaise Parinde aur European Shikari.

Islam and Homosexuality: Kya ladki Ladki se SHADI kar sakti hai?

Europe ki Aazadi aur Quran ki Be hurmati. Quran burning is freedom.

New World order ya Zewish World Order.

Parda aur Hijab: Ghar me Sharai Parda kis se aur Kaise kare? Na Mehram & Mehram.

इस दुनिया मे हर शख्स उतना ही परेशान है,
जितना उसकी नजर मे दुनिया की अहमियत।

मगरिब् को असल खतरा यह है के कहीँ लोग इस्लाम की तरफ न देखने लगे वह इसलिए के हर रोज यूरोप मे आलिम, मुफक्कीर्, फलसाफि, मुवास्सिर् कुरान व् हदीस पढ़ कर इस्लाम कुबूल कर रहा है....  लेकिन मुस्लिम घरानो मे बे हया, बेशर्म और बे गैरत बनने को ही असल तरक्की समझा जा रहा है। अगर हम अंग्रेजी कल्चर (मागरिबि ) के पीछे पीछे चलते रहे तो तबाही व् बर्बादी हमारे घरों का रूख जरूर करेगी। अगर कौम के लोग कुर्सी, पैसे और इक्तदार  के लिए दिन और तहजीब का मज़ाक बनाने और मुस्लिम खवातीन अंग्रेजी भेड़ियों के बहकावे मे गुमराह होती रही तो आने वाली नस्ल भेड़िया से ज्यादा डरपोक और खिंजीर से भी ज्यादा बे हया बन जायेगी।

Islamic System vs European System

“جمہوریت” اس دور کا صنمِ اکبر

سوال … میری ایک اُلجھن یہ ہے کہ: “اسلام میں جمہوریت کی گنجائش ہے یا نہیں؟” کیونکہ میری ناقص رائے کے مطابق “جمہوریت” کی حکومت میں آزاد خیالی اور لفظِ “آزادی” کی وجہ سے مسلمان تمام حدوں سے تجاوز کر جاتے ہیں، جبکہ دین “گھر” تک محدود ہوجاتا ہے، حالانکہ “اسلام” نہ صرف ایک بے مثال مذہب ہے بلکہ اس میں خدا کے مستند قوانین سموئے ہوئے ہیں، اور اسلام میں ایک حد میں رہتے ہوئے آزادی بھی دی گئی ہے۔ برائے مہربانی جواب عنایت فرمائیں۔

جواب … بعض غلط نظریات قبولیتِ عامہ کی ایسی سند حاصل کرلیتے ہیں کہ بڑے بڑے عقلاء اس قبولیتِ عامہ کے آگے سر ڈال دیتے ہیں، وہ یا تو ان غلطیوں کا ادراک ہی نہیں کرپاتے یا اگر ان کو غلطی کا احساس ہو بھی جائے تو اس کے خلاف لب کشائی کی جرأت نہیں کرسکتے۔ دُنیا میں جو بڑی بڑی غلطیاں رائج ہیں ان کے بارے میں اہلِ عقل اسی المیے کا شکار ہیں۔ مثلاً “بت پرستی” کو لیجئے!

خدائے وحدہ لا شریک کو چھوڑ کر خود تراشیدہ پتھروں اور مورتیوں کے آگے سر بسجود ہونا کس قدر غلط اور باطل ہے، انسانیت کی اس سے بڑھ کر توہین و تذلیل کیا ہوگی کہ انسان کو - جو اَشرف المخلوقات ہے-
بے جان مورتیوں کے سامنے سرنگوں کردیا جائے اور اس سے بڑھ کر ظلم کیا ہوگا کہ حق تعالیٰ شانہ کے ساتھ مخلوق کو شریکِ عبادت کیا جائے۔ لیکن مشرک برادری کے عقلاء کو دیکھو کہ وہ خود تراشیدہ پتھروں، درختوں، جانوروں وغیرہ کے آگے سجدہ کرتے ہیں۔
تمام تر عقل و دانش کے باوجود ان کا ضمیر اس کے خلاف احتجاج نہیں کرتا اور نہ وہ اس میں کوئی قباحت محسوس کرتے ہیں۔

اسی غلط قبولیتِ عامہ کا سکہ آج “جمہوریت” میں چل رہا ہے، جمہوریت دورِ جدید کا وہ “صنمِ اکبر” ہے جس کی پرستش اوّل اوّل دانایانِ مغرب نے شروع کی، چونکہ وہ آسمانی ہدایت سے محروم تھے اس لئے ان کی عقلِ نارسا نے دیگر نظام ہائے حکومت کے مقابلے میں جمہوریت کا بت تراش لیا اور پھر اس کو مثالی طرزِ حکومت قرار دے کر اس کا صور اس بلند آہنگی سے پھونکا کہ پوری دُنیا میں اس کا غلغلہ بلند ہوا یہاں تک کہ مسلمانوں نے بھی تقلیدِ مغرب میں جمہوریت کی مالا جپنی شروع کر دی۔

کبھی یہ نعرہ بلند کیا گیا کہ “اسلام جمہوریت کا عَلم بردار ہے” اور کبھی “اسلامی جمہوریت” کی اصطلاح وضع کی گئی، حالانکہ مغرب “جمہوریت” کے جس بت کا پجاری ہے اس کا نہ صرف یہ کہ اسلام سے کوئی تعلق نہیں بلکہ وہ اسلام کے سیاسی نظریہ کی ضد ہے، اس لئے اسلام کے ساتھ “جمہوریت” کا پیوند لگانا اور جمہوریت کو مشرف بہ اسلام کرنا صریحاً غلط ہے۔

سب جانتے ہیں کہ اسلام، نظریہٴ خلافت کا داعی ہے جس کی رُو سے اسلامی مملکت کا سربراہ آنحضرت صلی اللہ علیہ وسلم کے خلیفہ اور نائب کی حیثیت سے اللہ تعالیٰ کی زمین پر اَحکامِ الٰہیہ کے نفاذ کا ذمہ دار قرار دیا گیا ہے۔

چنانچہ مسند الہند حکیم الاُمت شاہ ولی اللہ محدث دہلوی رحمہ اللہ تعالیٰ، خلافت کی تعریف ان الفاظ میں کرتے ہیں:

“مسئلہ در تعریف خلافت: ھی الریاسة العامة فی التصدی لاقامة الدین باحیاء العلوم الدینیة واقامة ارکان الاسلام والقیام بالجھاد وما یتعلق بہ من ترتیب الجیوش والفرض للمقاتلة واعطائھم من الفییٴ والقیام بالقضاء واقامة الحدود ورفع المظالم والأمر بالمعروف والنھی عن المنکر نیابة عن النبی صلی الله علیہ وسلم۔”

(ازالة الخفاء ص:۲)

ترجمہ:… “خلافت کے معنی ہیں: آنحضرت صلی اللہ علیہ وسلم کی نیابت میں دِین کو قائم (اور نافذ) کرنے کے لئے مسلمانوں کا سربراہ بننا۔ دِینی علوم کو زندہ رکھنا، ارکانِ اسلام کو قائم کرنا، جہاد کو قائم کرنا اور متعلقاتِ جہاد کا انتظام کرنا، مثلاً: لشکروں کا مرتب کرنا، مجاہدین کو وظائف دینا اور مالِ غنیمت ان میں تقسیم کرنا، قضا و عدل کو قائم کرنا، حدودِ شرعیہ کو نافذ کرنا اور مظالم کو رفع کرنا، امر بالمعروف اور نہی عن المنکر کرنا۔”

اس کے برعکس جمہوریت میں عوام کی نمائندگی کا تصوّر کار فرما ہے، چنانچہ جمہوریت کی تعریف ان الفاظ میں کی جاتی ہے:

“جمہوریت وہ نظامِ حکومت ہے جس میں عوام کے چنے ہوئے نمائندوں کی اکثریت رکھنے والی سیاسی جماعت حکومت چلاتی ہے اور عوام کے سامنے جواب دہ ہوتی ہے۔”

گویا اسلام کے نظامِ خلافت اور مغرب کے تراشیدہ نظامِ جمہوریت کا راستہ پہلے ہی قدم پر الگ الگ ہوجاتا ہے، چنانچہ:

Y:… خلافت، رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کی نیابت کا تصوّر پیش کرتی ہے، اور جمہوریت عوام کی نیابت کا نظریہ پیش کرتی ہے۔

Y:… خلافت، مسلمانوں کے سربراہ پر اِقامتِ دِین کی ذمہ داری عائد کرتی ہے، یعنی اللہ تعالیٰ کی زمین پر اللہ کا دِین قائم کیا جائے، اور اللہ کے بندوں پر، اللہ تعالیٰ کی زمین پر اللہ تعالیٰ کے مقرّر کردہ نظامِ عدل کو نافذ کیا جائے، جبکہ جمہوریت کو نہ خدا اور رسول سے کوئی واسطہ ہے، نہ دِین اور اِقامتِ دِین سے کوئی غرض ہے، اس کا کام عوام کی خواہشات کی تکمیل ہے اور وہ ان کے منشاء کے مطابق قانون سازی کی پابند ہے۔

Y:… اسلام، منصبِ خلافت کے لئے خاص شرائط عائد کرتا ہے، مثلاً: مسلمان ہو، عاقل و بالغ ہو، سلیم الحواس ہو، مرد ہو، عادل ہو، اَحکامِ شرعیہ کا عالم ہو، جبکہ جمہوریت ان شرائط کی قائل نہیں، جمہوریت یہ ہے کہ جو جماعت بھی عوام کو سبز باغ دِکھا کر اسمبلی میں زیادہ نشستیں حاصل کرلے اسی کو عوام کی نمائندگی کا حق ہے۔ جمہوریت کو اس سے بحث نہیں کہ عوامی اکثریت حاصل کرنے والے ارکان مسلمان ہیں یا کافر، نیک ہی یا بد، متقی و پرہیزگار ہیں یا فاجر و بدکار، اَحکامِ شرعیہ کے عالم ہیں یا جاہلِ مطلق اور لائق ہیں یا کندہ ناتراش، الغرض! جمہوریت میں عوام کی پسند و ناپسند ہی سب سے بڑا معیار ہے اور اسلام نے جن اوصاف و شرائط کا کسی حکمران میں پایا جانا ضروری قرار دیا، وہ عوام کی حمایت کے بعد سب لغو اور فضول ہیں، اور جو نظامِ سیاست اسلام نے مسلمانوں کے لئے وضع کیا ہے وہ جمہوریت کی نظر میں محض بے کار اور لایعنی ہے، نعوذ باللہ!

Y:… خلافت میں حکمران کے لئے بالاتر قانون کتاب و سنت ہے، اور اگر مسلمانوں کا اپنے حکام کے ساتھ نزاع ہوجائے تو اس کو اللہ و رسول صلی اللہ علیہ وسلم کی طرف رَدّ کیا جائے گا اور کتاب و سنت کی روشنی میں اس کا فیصلہ کیا جائے گا، جس کی پابندی راعی اور رعایا دونوں پر لازم ہوگی۔ جبکہ جمہوریت کا “فتویٰ” یہ ہے کہ مملکت کا آئین سب سے “مقدس” دستاویز ہے اور تمام نزاعی اُمور میں آئین و دستور کی طرف رُجوع لازم ہے، حتیٰ کہ عدالتیں بھی آئین کے خلاف فیصلہ صادر نہیں کرسکتیں۔

لیکن ملک کا دستور اپنے تمام تر “تقدس” کے باوجود عوام کے منتخب نمائندوں کے ہاتھ کا کھلونا ہے، وہ مطلوبہ اکثریت کے بل بوتے پر اس میں جو چاہیں ترمیم و تنسیخ کرتے پھریں، ان کو کوئی روکنے والا نہیں، اور مملکت کے شہریوں کے لئے جو قانون چاہیں بنا ڈالیں، کوئی ان کو پوچھنے والا نہیں۔ یاد ہوگا کہ انگلینڈ کی پارلیمنٹ نے دو مردوں کی شادی کو قانوناً جائز قرار دیا تھا اور کلیسا نے ان کے فیصلے پر صاد فرمایا تھا، چنانچہ عملاً دو مردوں کا، کلیسا کے پادری نے نکاح پڑھایا تھا، نعوذ باللہ!

حال ہی میں پاکستان کی ایک محترمہ کا بیان اخبارات کی زینت بنا تھا کہ جس طرح اسلام نے ایک مرد کو بیک وقت چار عورتوں سے شادی کی اجازت دی ہے، اسی طرح ایک عورت کو بھی اجازت ہونی چاہئے کہ وہ بیک وقت چار شوہر رکھ سکے۔

ہمارے یہاں جمہوریت کے نام پر مرد و زن کی مساوات کے جو نعرے لگ رہے ہیں، بعید نہیں کہ جمہوریت کا نشہ کچھ تیز ہو جائے اور پارلیمنٹ میں یہ قانون بھی زیر بحث آجائے۔ ابھی گزشتہ دنوں پاکستان ہی کے ایک بڑے مفکر کا مضمون اخبار میں شائع ہوا تھا کہ شریعت کو پارلیمنٹ سے بالاتر قرار دینا قوم کے نمائندوں کی توہین ہے، کیونکہ قوم نے اپنے منتخب نمائندوں کو قانون سازی کا مکمل اختیار دیا ہے۔ ان صاحب کا یہ عندیہ “جمہوریت” کی صحیح تفسیر ہے، جس کی رُو سے قوم کے منتخب نمائندے شریعتِ الٰہی سے بھی بالاتر قرار دئیے گئے ہیں، یہی وجہ ہے کہ پاکستان میں “شریعت بل” کئی سالوں سے قوم کے منتخب نمائندوں کا منہ تک رہا ہے لیکن آج تک اسے شرفِ پذیرائی حاصل نہیں ہوسکا، اس کے بعد کون کہہ سکتا ہے کہ اسلام، مغربی جمہوریت کا قائل ہے؟

Y:… تمام دُنیا کے عقلاء کا قاعدہ ہے کہ کسی اہم معاملے میں اس کے ماہرین سے مشورہ لیا جاتا ہے، اسی قاعدے کے مطابق اسلام نے انتخابِ خلیفہ کی ذمہ داری اہلِ حل و عقد پر ڈالی ہے، جو رُموزِ مملکت کو سمجھتے ہیں اور یہ جانتے ہیں کہ اس کے لئے موزوں ترین شخصیت کون ہو سکتی ہے، جیسا کہ حضرت علی کرّم اللہ وجہہ نے فرمایا تھا:

“انما الشوریٰ للمھاجرین والأنصار۔”

ترجمہ:… “خلیفہ کے انتخاب کا حق صرف مہاجرین و انصار کو حاصل ہے۔”

لیکن بت کدہٴ جمہوریت کے برہمنوں کا “فتویٰ” یہ ہے کہ حکومت کے انتخاب کا حق ماہرین کو نہیں بلکہ عوام کو ہے۔ دُنیا کا کوئی کام اور منصوبہ ایسا نہیں جس میں ماہرین کے بجائے عوام سے مشورہ لیا جاتا ہو، کسی معمولی سے معمولی ادارے کو چلانے کے لئے بھی اس کے ماہرین سے مشورہ طلب کیا جاتا ہے، لیکن یہ کیسی ستم ظریفی ہے کہ حکومت کا ادارہ (جو تمام اداروں کی ماں ہے اور مملکت کے تمام وسائل جس کے قبضے میں ہیں، اس کو) چلانے کے لئے ماہرین سے نہیں بلکہ عوام سے رائے لی جاتی ہے، حالانکہ عوام کی ننانوے فیصد اکثریت یہی نہیں جانتی کہ حکومت کیسے چلائی جاتی ہے؟

اس کی پالیسیاں کیسے مرتب کی جاتی ہیں؟ اور حکمرانی کے اُصول و آداب اور نشیب و فراز کیا کیا ہیں․․․؟

ایک حکیم و دانا کی رائے کو ایک گھسیارے کی رائے کے ہم وزن شمار کرنا، اور ایک کندہ ناتراش کی رائے کو ایک عالی دماغ مدبر کی رائے کے برابر قرار دینا، یہ وہ تماشا ہے جو دُنیا کو پہلی بار “جمہوریت” کے نام سے دِکھایا گیا ہے۔

درحقیقت “عوام کی حکومت، عوام کے لئے اور عوام کے مشورے سے” کے الفاظ محض عوام کو اُلُّو بنانے کے لئے وضع کئے گئے ہیں، ورنہ واقعہ یہ ہے کہ جمہوریت میں نہ تو عوام کی رائے کا احترام کیا جاتا ہے اور نہ عوام کی اکثریت کے نمائندے حکومت کرتے ہیں، کیونکہ جمہوریت میں اس پر کوئی پابندی عائد نہیں کی جاتی کہ عوام کی حمایت حاصل کرنے کے لئے کون کون سے نعرے لگائے جائیں گے اور کن کن ذرائع کو استعمال کیا جائے گا؟

عوام کی ترغیب و تحریص کے لئے جو ہتھکنڈے بھی استعمال کئے جائیں، ان کو گمراہ کرنے کے لئے جو سبز باغ بھی دِکھائے جائیں اور انہیں فریفتہ کرنے کے لئے جو ذرائع بھی استعمال کئے جائیں وہ جمہوریت میں سب روا ہیں۔

اب ایک شخص خواہ کیسے ہی ذرائع اختیار کرے، اپنے حریفوں کے مقابلے میں زیادہ ووٹ حاصل کرنے میں کامیاب ہو جائے، وہ “عوام کا نمائندہ” شمار کیا جاتا ہے، حالانکہ عوام بھی جانتے ہیں کہ اس شخص نے عوام کی پسندیدگی کی بنا پر زیادہ ووٹ حاصل نہیں کئے بلکہ روپے پیسے سے ووٹ خریدے ہیں، دھونس اور دھاندلی کے حربے استعمال کئے ہیں اور غلط وعدوں سے عوام کو دھوکا دیا ہے، لیکن ان تمام چیزوں کے باوجود یہ شخص نہ روپے پیسے کا نمائندہ کہلاتا ہے، نہ دھونس اور دھاندلی کا منتخب شدہ اور نہ جھوٹ، فریب اور دھوکا دہی کا نمائندہ شمار کیا جاتا ہے، چشمِ بد دُور! یہ “قوم کا نمائندہ” کہلاتا ہے۔

انصاف کیجئے! کہ “قوم کا نمائندہ” اسی قماش کے آدمی کو کہا جاتا ہے؟ اور کیا ایسے شخص کو ملک و قوم سے کوئی ہمدردی ہو سکتی ہے․․․؟

عوامی نمائندگی کا مفہوم تو یہ ہونا چاہئے کہ عوام کسی شخص کو ملک و قوم کے لئے مفید ترین سمجھ کر اسے بالکل آزادانہ طور پر منتخب کریں، نہ اس اُمیدوار کی طرف سے کسی قسم کی تحریص و ترغیب ہو، نہ کوئی دباوٴ ہو، نہ برادری اور قوم کا واسطہ ہو، نہ روپے پیسے کا کھیل ہو، الغرض اس شخصیت کی طرف سے اپنی نمائش کا کوئی سامان نہ ہو اور عوام کو بے وقوف بنانے کا اس کے پاس کوئی حربہ نہ ہو۔ قوم نے اس کو صرف اور صرف اس بنا پر منتخب کیا ہو کہ یہ اپنے علاقے کا لائق ترین آدمی ہے، اگر ایسا انتخاب ہوا کرتا تو بلاشبہ یہ عوامی انتخاب ہوتا اور اس شخص کو “قوم کا منتخب نمائندہ” کہنا صحیح ہوتا، لیکن عملاً جو جمہوریت ہمارے یہاں رائج ہے، یہ عوام کے نام پر عوام کو دھوکا دینے کا ایک کھیل ہے اور بس․․․!

کہا جاتا ہے کہ: “جمہوریت میں عوام کی اکثریت کو اپنے نمائندوں کے ذریعہ حکومت کرنے کا حق دیا جاتا ہے” یہ بھی محض ایک پُرفریب نعرہ ہے، ورنہ عملی طور پر یہ ہو رہا ہے کہ جمہوریت کے غلط فارمولے کے ذریعہ ایک محدود سی اقلیت، اکثریت کی گردنوں پر مسلط ہوجاتی ہے! مثلاً: فرض کر لیجئے کہ ایک حلقہٴ انتخاب میں ووٹوں کی کل تعداد پونے دو لاکھ ہے، پندرہ اُمیدوار ہیں، ان میں سے ایک شخص تیس ہزار ووٹ حاصل کرلیتا ہے، جن کا تناسب دُوسرے اُمیدواروں کو حاصل ہونے والے ووٹوں سے زیادہ ہے، حالانکہ اس نے صرف سولہ فیصد حاصل کئے ہیں، اس طرح سولہ فیصد کے نمائندے کو ۸۴ فیصد پر حکومت کا حق حاصل ہوا۔ فرمائیے! یہ جمہوریت کے نام پر ایک محدود اقلیت کو غالب اکثریت کی گردنوں پر مسلط کرنے کی سازش نہیں تو اور کیا ہے․․․؟
چنانچہ اس وقت مرکز میں جو حکومت “کوس لمن الملک” بجا رہی ہے، اس کو ملک کی مجموعی آبادی کے تناسب سے ۳۳ فیصد کی حمایت بھی حاصل نہیں، لیکن جمہوریت کے تماشے سے نہ صرف وہ جمہوریت کی پاسبان کہلاتی ہے بلکہ اس نے ایک عورت کو ملک کے سیاہ و سفید کا مالک بنا رکھا ہے۔

الغرض! جمہوریت کے عنوان سے “عوام کی حکومت، عوام کے لئے” کا دعویٰ محض ایک فریب ہے، اور اسلام کے ساتھ اس کی پیوندکاری فریب در فریب ہے، اسلام کا جدید جمہوریت سے کوئی تعلق نہیں، نہ جمہوریت کو اسلام سے کوئی واسطہ ہے، “ضدان لا یجتمعان” (یہ دو متضاد جنسیں ہیں جو اکٹھی نہیں ہوسکتیں)۔

آپکے مسائل اور انکا حل جلد 8
مولانا یوسف لدھیانوی شہید رح

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Muslim ladakiya na kisi Gair ko apne dil me basati hai aur na Basti hai?

Momin Ladkiyaan Na kisi ko mayel karti hai aur nahi Kisi se mayel hoti hai?
Bagair nikah ke kisi na mehram ka dil se talluq hona kaisa hai?

مومنات نہ مائل ہونے والی ہوتی ہیں اور نہ ہی مائل کرنے والی ہوتی ہیں۔۔۔!!✨
انکا اندازِ گفتگو ، انکی چال ڈھال، انکا لباس ، انکی نظریں اور انکے معاملات سب حیا کے دائرے میں ہوتے ہیں.

وہ نہ ہی ہر غیر محرم کے دل میں بسنے والی ہوتی ہیں...‏اور نہ ہی ہر ایک کو اپنے دل میں بسانے والی ہوتی ہیں۔۔۔!!

یہ کردار صرف مومن عورتوں کیلیے ہی نہیں بلکہ مومن مردوں کا بھی یہی کردار ہوتا ہے.🎀                                                                   #حوا_کی_بیٹیاں

Aaj kal Mislim ladke ladkiya ishq baji me Diploma Kiye hue hai?

Islam aur Homosexuality: kya Koi Aurat Dusri Aurat se Shadi kar sakti hai?

Kya Ek Aurat Apne sath Char Mardo ko Jahannum  me le jayegi?

Ghar me Sharai parda Kaise kare aur Kis se Kare?

Muslim Ladkiya Gair Muslim ladko ke sath bhag kar Kyu court Marriage kar rahi hai?

السلام علیکم ورحمةاللہ ۔۔۔۔۔

بغرض نکاح نامحرم سے دل کا معلق ہونا کوئی حرج کی بات نہیں ہے بشرطیکہ شرعئی حدود و قیود کی پابندی کی جائے اور نکاح کے لیے کوشش کی جائے ۔

اور جو مرد عورت کو چھپ چھپ کر یا تنہائی میں ملنے پر ابھارے ، تو عورت کو جان لینا چاہیے وہ اللہ کی حدود کو توڑ رہا ہے ، ایسا مرد خود بھی آگ پر چلتا ہے اور عورت کو بھی آگ کے راستے پر چلاتا ہے ۔

پس نادان ہیں اور عظیم خسارے میں ہیں وہ دونوں مرد و عورت جو عارضی دنیا کے وقتی مزوں کی خاطر آگ کو اپنے اوپر حلال کر لیتے ہیں ۔ اور بے شک ہر جن و انس کو عنقریب اپنے رب کے سامنے حاضر ہونا ہے ، جہاں اگر باز پرس ہوگئی تو خسارہ ہی خسارہ ہے ، اور بے شک جہنم کا ٹھاٹیں مارتا آگ کا سمندر اللہ تعالیٰ نے ایسے ہی لوگوں کے لیے تیار کیا ہے جو اللہ کی بنائی ہوئی حدودوں کو تجاوز کرتے ہیں ۔

اللہ سے دعا ہے کہ ہم مسلمان تو بن گئے ہیں لیکن اللہ ہمیں مومن بھی بنادے جو گناہوں سے ڈرنے والا متقی اور پرہیزگار ہوتا ہے ۔۔۔۔

آمین یارب العالمین
🖊: مسز انصاری

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Iddat Ke Masail: Aurat Iddat kab tak aur Kahan Gujaregi, Kisi Jaruri kam ke liye Ghar se bahar ja Sakti hai ya Nahi?

Aurat iddat kahan Gujaregi? Apne Waldain ke ghar ya Shauhar ke Ghar?
Kya Iddat ke Dauran Aurat Ghar se bahar Ja sakti hai?
Sawal: Agar Kisi Aurat ka Shauhar Faut ho jaye to wah iddat kahan Gujaregi? Waldain Ke Ghar iddat gujar sakti hai? Iddat ke Dauran jaruri kamo ke liye ghar se bahar nikalne ka kya hukm hai? Kya Jaruri Kamkaz ya Dars sunne Ke liye ja sakti ?
Kya Ladki Dusri Ladki se Shadi kar Sakti hai? Homosexuality and Islam.

Kya Ladki Apni marzi se Shadi kar sakti hai?

Kya Auraten Qabristaan, Eidgaah aur Masjid me Ja Sakti hai?

"سلسلہ سوال و جواب نمبر -383"
سوال- اگر کسی عورت کا شوہر فوت ہو جائے تو وہ عدت کہاں گزارے۔۔؟والدین کے گھر عدت گزار سکتی.؟ نیز شوہر کی عدت وفات میں گھر سے باہر نکلنے کا کیا حکم؟ کیا وہ کسی ضروری کام کاج، اور علاج یا درس وغیرہ سننے کیلئے گھر سے باہر جا سکتی ہے.؟

Published Date: 28-12-2022

جواب!
الحمدللہ..!

*جس عورت کا خاوند فوت ہو جائے تو اسے عدت اپنے اسی گھر میں گزارنی چاہیے جس میں وہ شوہر کی رفاقت کے وقت قیام پذیر تھی ، یعنی اپنے شوہر کے گھر میں ہی گزارے گی، ہاں اگر اسکی جان یا مال کو بہت زیادہ خطرہ ہو کہ وہاں رہنا مشکل ہو جائے تو وہ کسی اور محفوظ جگہ پر عدت گزار سکتی ہے، اور بغیر کسی وجہ کے دوران عدت عورت کیلئے گھر سے نکلنا جائز نہیں، ہاں البتہ وہ بہت ضرورت کے تحت گھر سے نکل سکتی ہے، کسی کام وغیرہ کیلئے جیسے کوئی اور نہیں باہر جانے والا تو سودا سلف لینے، یا ڈاکٹر پاس جانا، کسی کا پیپر/امتحان ہو، یا انٹرویو جاب کا یا ایسی کوئی اور اہم بات جس سے مالی یا جانی نقصان کا خدشہ ہو، یا آس پاس درس و تدریس کیلۓ، یا دل بہلانے کیلئے آس پاس کسی پڑوسن گھر جا سکتی مگر شرط یہ ہے کہ رات اپنے گھر میں گزارے، یہ جائز ہے*

*دلائل درج ذیل ہیں...!*

📚جامع ترمذی
کتاب: طلاق اور لعان کا بیان
باب: شوہر فوت ہوجائے تو عورت عدت کہاں گزارے
حدیث نمبر: 1204
حَدَّثَنَا الْأَنْصَارِيُّ، أَنْبَأَنَا مَعْنٌ، أَنْبَأَنَا مَالِكٌ، عَنْ سَعْدِ بْنِ إِسْحَاق بْنِ كَعْبِ بْنِ عُجْرَةَ، عَنْ عَمَّتِهِ زَيْنَبَ بِنْتِ كَعْبِ بْنِ عُجْرَةَ، أَنَّ الْفُرَيْعَةَ بِنْتَ مَالِكِ بْنِ سِنَانٍ، وَهِيَ أُخْتُ أَبِي سَعِيدٍ الْخُدْرِيِّ، ‏‏‏‏‏‏أَخْبَرَتْهَا، ‏‏‏‏‏‏أَنَّهَا جَاءَتْ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ تَسْأَلُهُ، ‏‏‏‏‏‏أَنْ تَرْجِعَ إِلَى أَهْلِهَا فِي بَنِي خُدْرَةَ، ‏‏‏‏‏‏وَأَنَّ زَوْجَهَا خَرَجَ فِي طَلَبِ أَعْبُدٍ لَهُ، ‏‏‏‏‏‏أَبَقُوا حَتَّى إِذَا كَانَ بِطَرَفِ الْقَدُومِ، ‏‏‏‏‏‏لَحِقَهُمْ فَقَتَلُوهُ. قَالَتْ:‏‏‏‏ فَسَأَلْتُ رَسُولَ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، ‏‏‏‏‏‏أَنْ أَرْجِعَ إِلَى أَهْلِي فَإِنَّ زَوْجِي لَمْ يَتْرُكْ لِي مَسْكَنًا يَمْلِكُهُ، ‏‏‏‏‏‏وَلَا نَفَقَةً، ‏‏‏‏‏‏قَالَتْ:‏‏‏‏ فَقَالَ رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ:‏‏‏‏  نَعَمْ ، ‏‏‏‏‏‏قَالَتْ:‏‏‏‏ فَانْصَرَفْتُ حَتَّى إِذَا كُنْتُ فِي الْحُجْرَةِ، ‏‏‏‏‏‏أَوْ فِي الْمَسْجِدِ نَادَانِي رَسُولُ اللَّهِ صَلَّى اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ، ‏‏‏‏‏‏أَوْ أَمَرَ بِي فَنُودِيتُ لَهُ، ‏‏‏‏‏‏فَقَالَ:‏‏‏‏  كَيْفَ قُلْتِ ؟  قَالَتْ:‏‏‏‏ فَرَدَدْتُ عَلَيْهِ الْقِصَّةَ الَّتِي ذَكَرْتُ لَهُ مِنْ شَأْنِ زَوْجِي، ‏‏‏‏‏‏قَالَ:‏‏‏‏  امْكُثِي فِي بَيْتِكِ، ‏‏‏‏‏‏حَتَّى يَبْلُغَ الْكِتَابُ أَجَلَهُ . قَالَتْ:‏‏‏‏ فَاعْتَدَدْتُ فِيهِ أَرْبَعَةَ أَشْهُرٍ وَعَشْرًا، ‏‏‏‏‏‏قَالَتْ:‏‏‏‏ فَلَمَّا كَانَ عُثْمَانُ أَرْسَلَ إِلَيَّ فَسَأَلَنِي عَنْ ذَلِكَ، ‏‏‏‏‏‏فَأَخْبَرْتُهُ، ‏‏‏‏‏‏فَاتَّبَعَهُ، ‏‏‏‏‏‏وَقَضَى بِهِ.
ترجمہ:

زینب بنت کعب بن عجرہ سے روایت ہے کہ  فریعہ بنت مالک بن سنان ؓ جو ابو سعید خدری کی بہن ہیں نے انہیں خبر دی کہ وہ رسول اللہ  ﷺ  کے پاس آئیں، وہ آپ سے پوچھ رہی تھیں کہ وہ اپنے گھر والوں کے پاس بنی خدرہ میں واپس چلی جائیں  (ہوا یہ تھا کہ)  ان کے شوہر اپنے ان غلاموں کو ڈھونڈنے کے لیے نکلے تھے جو بھاگ گئے تھے، جب وہ مقام قدوم کے کنارے پر ان سے ملے، تو ان غلاموں نے انہیں مار ڈالا۔ فریعہ کہتی ہیں کہ میں نے رسول اللہ  ﷺ  سے پوچھا کہ میں اپنے گھر والوں کے پاس چلی جاؤں؟ کیونکہ میرے شوہر نے میرے لیے اپنی ملکیت کا نہ تو کوئی مکان چھوڑا ہے اور نہ کچھ خرچ۔ تو رسول اللہ  ﷺ  نے فرمایا:  ہاں ، چناچہ میں واپس جانے لگی یہاں تک کہ میں حجرہ شریفہ یا مسجد نبوی ہی میں ابھی تھی کہ رسول اللہ  ﷺ  نے مجھے آواز دی۔  (یا آپ نے حکم دیا کہ مجھے آواز دی جائے)  پھر آپ نے پوچھا:  تم نے کیسے کہا؟ میں نے وہی قصہ دہرا دیا جو میں نے آپ سے اپنے شوہر کے بارے میں ذکر کیا تھا، آپ نے فرمایا:  تم اپنے گھر ہی میں رہو یہاں تک کہ تمہاری عدت ختم ہوجائے ، چناچہ میں نے اسی گھر میں چار ماہ دس دن عدت گزاری۔ پھر جب عثمان ؓ خلیفہ ہوئے تو انہوں نے مجھے بلوایا اور مجھ سے اس بارے میں پوچھا تو میں نے ان کو بتایا۔ چناچہ انہوں نے اس کی پیروی کی اور اسی کے مطابق فیصلہ کیا۔ محمد بن بشار کی سند سے بھی اس جیسی اسی مفہوم کی حدیث آئی ہے۔
(ترمذی، کتاب الطلاق واللعان باب ما جاء این تعتد المتوفی عنہا زوجھا_1204)

(موطا مالک، احمد، ابوداؤد، ابن ماجہ، نسائی، دارمی وغیرھا)
(الألباني (ت ١٤٢٠)، صحيح الترمذي ١٢٠٤)
(ابن عبد البر (ت ٤٦٣)، التمهيد ٢١‏/٢٧  •  مشهور معروف ثابت)

📙امام ترمذی فرماتے ہیں یہ حدیث حسن صحیح ہے اور اسی حدیث کے مطابق نبی کریم صلی اللہ علیہ وسلم کے اکثر اہل علم صحابہ کرام رضی اللہ عنہم وغیرھم کا عمل ہے انہوں نے عدت گزارنے والی عورت کے لیے جائز نہیں رکھا کہ وہ اپنے شوہر کے گھر سے عدت پوری ہونے سے پہلے منتقل ہو۔

امام سفیان ثوری، امام شافعی، امام احمد، امام اسحاق بن راھویہ کا یہی موقف ہے اور بعض اہل علم صحابہ وغیرھم نے کہا کہ عورت جہاں چاہے عدت گزار لے اگر وہ اپنے خاوند کے گھر عدت نہ گزارنا چاہے۔ امام ترمذی فرماتے ہیں پہلی بات صحیح ترین ہے یعنی عورت اسی گھر میں عدت گزارے جہاں وہ اپنے شوہر کی رفاقت میں قیام پذیر تھی۔
(ترمذی مع تحفۃ الاحوذی 4/441،442)

📚سئل شيخ الإسلام ابن تيمية – رحمه الله - :
عن امرأة عزمت على الحج هي وزوجها فمات زوجها في شعبان : فهل يجوز لها أن تحج ؟
فأجاب :
ليس لها أن تسافر في العدة عن الوفاة إلى الحج في مذهب الأئمة الأربعة .
" مجموع الفتاوى " ( 34 / 29 ) 
شيخ الاسلام ابن تيميہ رحمہ اللہ سے درج ذيل سوال دريافت كيا گيا:

ايك عورت اور اس كے خاوند نے حج كا عزم كيا تو شعبان كے مہينہ ميں اس كے خاوند كى وفات ہوگئى تو كيا اس كے ليے حج كرنا جائز ہے يا نہيں ؟
شيخ الاسلام كا جواب تھا:
آئمہ اربعہ كے ہاں بيوہ عورت دوران عدت حج كے ليے سفر نہيں كر سكتى "
ديكھيں: مجموع الفتاوى ( 34 / 29 )

📙ایک اور جگہ پر شيخ الاسلام ابن تيميہ رحمہ اللہ كہتے ہيں:

المعتدة عدة الوفاة تتربص أربعة أشهر وعشراً ، وتجتنب الزينة والطِّيب في بدنها وثيابها ، ولا تتزين ولا تتطيب ولا تلبس ثياب الزينة ، وتلزم منزلها فلا تخرج بالنهار إلا لحاجة ولا بالليل إلا لضرورة ... .
ويجوز لها سائر ما يباح لها في غير العدة : مثل كلام من تحتاج إلى كلامه من الرجال إذا كانت مستترة وغير ذلك .
وهذا الذي ذكرتُه هو سنَّة رسول الله صلى الله عليه وسلم الذي كان يفعله نساء الصحابة إذا مات أزواجهن ونساؤه صلى الله عليه وسلم .
" مجموع الفتاوى " ( 34 / 27 ، 28 )
" بيوہ عورت چار ماہ دس دن عدت گزارےگى، اور وہ عدت كے عرصہ ميں زينت و زيبائش اور بدن و لباس ميں خوشبو لگانے سے اجتناب كريگى، نہ تو وہ زينت اختيار كرے گى اور نہ ہى خوشبو لگائيگى، اور نہ ہى خوبصورت لباس زيب تن كريگى، اور اپنے گھر ميں ہى رہےگى، بغير حاجت كے دن كے وقت باہر نہيں نكلےگى، اور رات كو بھى ضرورت كے بغير باہر نہيں جائيگى....
اس كے ليے ہر وہ چيز جائز ہے جو عدت كے علاوہ عرصہ ميں جائز ہے؛ مثلا اگر باپرد ہو كر اسے كسى مرد سے بات چيت كرنا پڑے تو كر سكتى ہے.
ميں نے جو كچھ بيان كيا ہے وہ رسول كريم صلى اللہ عليہ وسلم كى سنت ہے اگر كوئى صحابى فوت ہو جاتا تو صحابہ كرام كى بيوياں يہى كيا كرتى تھيں، اور رسول كريم صلى اللہ عليہ وسلم كى بيويوں نے بھى ايسا ہى كيا "
ديكھيں: مجموع الفتاوى ( 34 / 27 - 28 ).

*لہذا عورت عدت اپنے شوہر کے گھر میں ہی گزارے اور بغیر عذر کے گھر سے باہر نا نکلے، لیکن مجبوری کے تحت کام کاج کے لئے دن کے وقت گھر سے نکل سکتی ہے اور رات اسی گھر میں آ کر بسر کرے گی اس کی دلیل درج ذیل حدیث ہے*

📚صحیح مسلم
کتاب: طلاق کا بیان

كِتَابُ الطَّلَاقِ (بَابُ جَوَازِ خُرُوجِ الْمُعْتَدَّةِ الْبَائِنِ، وَالْمُتَوَفَّى عَنْهَا زَوْجُهَا فِي النَّهَارِ لِحَاجَتِهَا
باب: باب: طلاق بائن کی عدت گزرنے والی اور جس کا شوہر فوت ہوگیا ہو ‘اس کے لیے اپنی کسی ضرورت کے تحت دن کے وقت گھر سے نکلنا جائز ہے،
انٹرنیشنل حدیث نمبر -1483
اسلام 360حدیث نمبر: 3721
و حَدَّثَنِي مُحَمَّدُ بْنُ حَاتِمِ بْنِ مَيْمُونٍ حَدَّثَنَا يَحْيَی بْنُ سَعِيدٍ عَنْ ابْنِ جُرَيْجٍ ح و حَدَّثَنَا مُحَمَّدُ بْنُ رَافِعٍ حَدَّثَنَا عَبْدُ الرَّزَّاقِ أَخْبَرَنَا ابْنُ جُرَيْجٍ ح و حَدَّثَنِي هَارُونُ بْنُ عَبْدِ اللَّهِ وَاللَّفْظُ لَهُ حَدَّثَنَا حَجَّاجُ بْنُ مُحَمَّدٍ قَالَ قَالَ ابْنُ جُرَيْجٍ أَخْبَرَنِي أَبُو الزُّبَيْرِ أَنَّهُ سَمِعَ جَابِرَ بْنَ عَبْدِ اللَّهِ يَقُولُا طُلِّقَتْ خَالَتِي فَأَرَادَتْ أَنْ تَجُدَّ نَخْلَهَا فَزَجَرَهَا رَجُلٌ أَنْ تَخْرُجَ فَأَتَتْ النَّبِيَّ صَلَّی اللَّهُ عَلَيْهِ وَسَلَّمَ فَقَالَ بَلَی فَجُدِّي نَخْلَکِ فَإِنَّکِ عَسَی أَنْ تَصَدَّقِي أَوْ تَفْعَلِي مَعْرُوفًا
ترجمہ:
حضرت جابر بن عبداللہ رضی اللہ تعالی عنہما کہتے ہیں: میری خالہ کو طلاق ہو گئی، انہوں نے (دورانِ عدت) اپنی کھجوروں کا پھل توڑنے کا ارادہ کیا، تو ایک آدمی نے انہیں (گھر سے) باہر نکلنے پر ڈانٹا۔ وہ نبی ﷺ کی خدمت میں حاضر ہوئیں، تو آپﷺ نے فرمایا: ’’کیوں نہیں، اپنی کھجوروں کا پھل توڑو، ممکن ہے کہ تم (اس سے) صدقہ کرو یا کوئی اور اچھا کام کرو۔‘‘
(صحیح مسلم، ابوداؤد، مسند احمد، نسائی، دارمی، ابن ماجہ وغیرھا)

*آپ صلی اللہ علیہ وآلہ وسلم نے اس حدیث میں مطلقہ عورت کو عدت کے دوران بوقت ضرورت گھر سے باہر نکلنے کی اجازت دی ہے لہذا وفات کی عدت والی عورت کو اسی پر قیاس کیا جائے گا۔*

📚اس کی تائید مجاہد تابعی کے اس اثر سے بھی ہوتی ہے کہ
12077 - ﻋﻦ اﺑﻦ ﺟﺮﻳﺞ، ﻋﻦ ﻋﺒﺪ اﻟﻠﻪ ﺑﻦ ﻛﺜﻴﺮ ﻗﺎﻝ: ﻗﺎﻝ ﻣﺠﺎﻫﺪ: اﺳﺘﺸﻬﺪ ﺭﺟﺎﻝ ﻳﻮﻡ ﺃﺣﺪ ﻋﻦ ﻧﺴﺎﺋﻬﻢ، ﻭﻛﻦ ﻣﺘﺠﺎﻭﺭاﺕ ﻓﻲ ﺩاﺭﻩ، ﻓﺠﺌﻦ اﻟﻨﺒﻲ ﺻﻠﻰ اﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ ﻓﻘﻠﻦ: ﺇﻧﺎ ﻧﺴﺘﻮﺣﺶ ﻳﺎ ﺭﺳﻮﻝ اﻟﻠﻪ ﺑﺎﻟﻠﻴﻞ، ﻓﻨﺒﻴﺖ ﻋﻨﺪ ﺇﺣﺪاﻧﺎ، ﺣﺘﻰ ﺇﺫا ﺃﺻﺒﺤﻨﺎ ﺗﺒﺪﺩﻧﺎ ﺇﻟﻰ ﺑﻴﻮﺗﻨﺎ؟ ﻓﻘﺎﻝ اﻟﻨﺒﻲ ﺻﻠﻰ اﻟﻠﻪ ﻋﻠﻴﻪ ﻭﺳﻠﻢ: «ﺗﺤﺪﺛﻦ ﻋﻨﺪ ﺇﺣﺪاﻛﻦ ﻣﺎ ﺑﺪا ﻟﻜﻦ، ﺣﺘﻰ ﺇﺫا ﺃﺭﺩﺗﻦ اﻟﻨﻮﻡ ﻓﻠﺘﺄﺕ ﻛﻞ اﻣﺮﺃﺓ ﺇﻟﻰ ﺑﻴﺘﻬﺎ»
اُحد کے دن بہت سے لوگ شہید ہو گئے۔ ان کی عورتیں رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کے پاس حاضر ہوئیں اور کہا اے اللہ کے رسول صلی اللہ علیہ وسلم ہم رات کے وقت وحشت محسوس کرتی ہیں اس لئے چاہتی ہیں کہ کسی دوسری عورت کے ہاں رات بسر کر لیں یہاں تک کہ جب ہم صبح کریں تو اپنے گھروں کو جلدی سے آ جائیں تو رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم نے فرمایا،
تم جس کسی کے ہاں چاہو بات چیت کرو اور جب سونا چاہو تو ہر عورت اپنے اپنے گھر چلی جائے۔
(مصنف عبدالرزاق _ ج7، ص35 /ح12077)
(بیہقی 5ج/ ص436)

*معلوم ہوا کہ عورت بوقت مجبوری کام کاج کی غرض سے گھر سے باہر نکل سکتی ہے اور رات اپنے گھر میں ہی بسر کرے گی۔حضرت عمر، زید بن ثابت، اور ابن مسعود رضی اللہ عنہم کا یہی مذہب ہے۔*

📚 اور مصنف عبدالرزاق میں ہے کہ
12064 - ﻋﻦ ﻋﺒﺪ اﻟﻠﻪ ﺑﻦ ﻋﻤﺮ، ﻋﻦ ﻧﺎﻓﻊ، ﻭﻣﻌﻤﺮ، ﻋﻦ ﺃﻳﻮﺏ، ﻋﻦ ﻧﺎﻓﻊ ﻗﺎﻝ: «ﻛﺎﻧﺖ ﺑﻨﺖ ﻋﺒﺪ اﻟﻠﻪ ﺑﻦ ﻋﻤﺮ ﺗﻌﺘﺪ ﻣﻦ ﻭﻓﺎﺓ ﺯﻭﺟﻬﺎ، ﻓﻜﺎﻧﺖ ﺗﺄﺗﻴﻬﻢ ﺑﺎﻟﻨﺎﺭ ﻓﺘﺤﺪﺙ ﻋﻨﺪﻫﻢ، ﻓﺈﺫا ﻛﺎﻥ اﻟﻠﻴﻞ ﺃﻣﺮﻫﺎ ﺃﻥ ﺗﺮﺟﻊ ﺇﻟﻰ ﺑﻴﺘﻬﺎ»
عبداللہ بن عمر رضی اللہ عنہ کی بیٹی کا شوہر فوت ہو گیا تو وہ دن کی روشنی میں اپنے  والد سے ملنے کے لیے آ جایا کرتی تھیں، اور جب رات ہو جاتی تو وہ انہیں حکم دیتے کہ اپنے گھر چلی جائے۔
(مصنف عبدالرزاق:31ص/ج7،حدیث:12064)

📚مصنف عبدالرزاق ہی میں ہے کہ
12068 - ﻋﻦ اﻟﺜﻮﺭﻱ، ﻋﻦ ﻣﻨﺼﻮﺭ، ﻋﻦ ﺇﺑﺮاﻫﻴﻢ، ﻋﻦ ﻋﻠﻘﻤﺔ ﻗﺎﻝ: ﺳﺄﻝ اﺑﻦ ﻣﺴﻌﻮﺩ ﻧﺴﺎء ﻣﻦ ﻫﻤﺪاﻥ ﻧﻌﻲ ﺇﻟﻴﻬﻦ ﺃﺯﻭاﺟﻬﻦ، ﻓﻘﻠﻦ: ﺇﻧﺎ ﻧﺴﺘﻮﺣﺶ. ﻓﻘﺎﻝ ﻋﺒﺪ اﻟﻠﻪ: «ﺗﺠﺘﻤﻌﻦ ﺑﺎﻟﻨﻬﺎﺭ، ﺛﻢ ﺗﺮﺟﻊ ﻛﻞ اﻣﺮﺃﺓ ﻣﻨﻜﻦ ﺇﻟﻰ ﺑﻴﺘﻬﺎ ﺑﺎﻟﻠﻴﻞ»
حضرت عبداللہ بن مسعود رضی اللہ عنہ ان عورتوں کو جن کے شوہر وفات پا گئے ہوتے اور وہ اکیلے بیٹھنے سے پریشان ہوتیں، اجازت دیتے تھے کہ وہ کسی ایک کے گھر میں اکٹھی ہو جایا کریں، حتی کہ جب رات ہو جاتی تو ہر ایک سونے کے لیے اپنے گھر چلی جاتی تھی۔
(مصنف عبدالرزاق:32ص/ج7،حدیث:12068)

*لہذا ضرورت و حاجت كى خاطر عورت کیلئے دوران عدت دن كے وقت اپنے گھر سے باہر جانا جائز ہے، مثلا ضرورى اشياء كى خريدارى كے ليے بازار جانا، يا پھر كام کاج كے ليے*

__________&_____________

*سعودی فتاویٰ ویبسائٹ Islamqa.info پر اس طرح ایک سوال کیا گیا کہ،*

📙سوال:
ايك عورت كا خاوند فوت ہوگيا اور وہ كرايہ كے گھر ميں رہتى ہے، اس كے ميكے والے بھى اسى علاقے ميں رہتے ہيں ليكن گھر ان سے دور ہے، اور اس كا بھائى بھى كام كاج كى بنا پر اس كے گھر آ كر نہيں رہ سكتا، اور عورت مكان كا كرايہ بھى ادا نہيں كر سكتى، كيا يہ عورت عدت گزارنے كے ليے ميكے منتقل ہو سكتى ہے ؟

📚جواب.. !
الحمد للہ..!

بيوہ عورت كے ليے اپنے اسى گھر ميں عدت گزارنى واجب ہے جس گھر ميں رہائش ركھے ہوئے اسے خاوند فوت ہونے كى اطلاع ملى تھى؛ كيونكہ رسول كريم صلى اللہ عليہ وسلم نے يہى حكم ديا ہے.
كتب سنن ميں نبى كريم صلى اللہ عليہ وسلم كى درج ذيل حديث مروى ہے كہ:
" نبى كريم صلى اللہ عليہ وسلم نے فريعۃ بنت مالك رضى اللہ تعالى عنہا كو فرمايا تھا:
" تم اسى گھر ميں رہو جس گھر ميں تمہيں خاوند فوت ہونے كى اطلاع ملى تھى، حتى كہ عدت ختم ہو جائے.
فريعۃ رضى اللہ تعالى عنہا كہتى ہيں:
چنانچہ ميں نے اسى گھر ميں چار ماہ دس دن عدت بسر كى تھى "
سنن ابو داود حديث نمبر ( 2300 ) سنن ترمذى حديث نمبر ( 1204 ) سنن نسائى حديث نمبر ( 200 ) سنن ابن ماجہ حديث نمبر ( 2031 ) علامہ البانى رحمہ اللہ نے اسے صحيح ابن ماجہ ميں صحيح قرار ديا ہے.

اس حديث پر عمل كرتے ہوئے اكثر اہل علم كا بھى يہى مسلك ہے، ليكن انہوں نے يہ اجازت دى ہے كہ اگر كسى عورت كو اپنى جان كا خطرہ ہو يا پھر اس كے پاس اپنى ضروريات پورى كرنے كے ليے كوئى دوسرا شخص نہ ہو اور وہ خود بھى اپنى ضروريات پورى نہ كر سكتى ہو تو كہيں اور عدت گزار سكتى ہے.

ابن قدامہ رحمہ اللہ كہتے ہيں:
" بيوہ كے ليے اپنے گھر ميں ہى عدت گزارنے كو ضرورى قرار دينے والوں ميں عمر اور عثمان رضى اللہ تعالى عنہما شامل ہيں، اور ابن عمر اور ابن مسعود اور ام سلمہ رضى اللہ تعالى عنہم سے بھى مروى ہے، اور اما مالك امام ثورى اور امام اوزاعى اور امام ابو حنيفہ اور امام شافعى اور اسحاق رحمہم اللہ كا بھى يہى قول ہے.

ابن عبد البر رحمہ اللہ كہتے ہيں:
حجاز شام اور عراق كے فقھاء كرام كى جماعت كا بھى يہى قول ہے "
اس كے بعد لكھتے ہيں:
" چنانچہ اگر بيوہ كو گھر منہدم ہونے يا غرق ہونے يا دشمن وغيرہ كا خطرہ ہو... تو اس كے ليے وہاں سے دوسرى جگہ منتقل ہونا جائز ہے؛ كيونكہ يہ عذر كى حالت ہے...
اور اسے وہاں سے منتقل ہو كر كہيں بھى رہنے كا حق حاصل ہے " انتہى مختصرا
ديكھيں: المغنى ( 8 / 127 ).

مستقل فتوى كميٹى كے علماء كرام سے درج ذيل سوال كيا گيا:
ايك عورت كا خاوند فوت ہو گيا ہے اور جس علاقے ميں اس كا خاوند فوت ہوا ہے وہاں اس عورت كى ضرورت پورى كرنے والا كوئى نہيں، كيا وہ دوسرے شہر جا كر عدت گزار سكتى ہے ؟

كميٹى كے علماء كرام كا جواب تھا:
" اگر واقعتا ايسا ہے كہ جس شہر اور علاقے ميں خاوند فوت ہوا ہے وہاں اس بيوہ كى ضروريات پورى كرنے والا كوئى نہيں، اور وہ خود بھى اپنى ضروريات پورى نہيں كر سكتى تو اس كے ليے وہاں سے كسى دوسرے علاقے ميں جہاں پر اسے اپنے آپ پر امن ہو اور اس كى ضروريات پورى كرنے والا ہو وہاں منتقل ہونا شرعا جائز ہے " انتہى
ديكھيں: فتاوى اللجنۃ الدائمۃ للبحوث العلميۃ والافتا ( 20 / 473 ).

اور فتاوى جات ميں يہ بھى درج ہے:
" اگر آپ كى بيوہ بہن كو دوران عدت اپنے خاوند كے گھر سے كسى دوسرے گھر ميں ضرورت كى بنا پر منتقل ہونا پڑے مثلا وہاں اسے اكيلے رہنے ميں جان كا خطرہ ہو تو اس ميں كوئى حرج نہيں، وہ دوسرے گھر ميں منتقل ہو كر عدت پورى كريگى " انتہى
ديكھيں: فتاوى اللجنۃ الدائمۃ للبحوث العلميۃ والافتاء ( 20 / 473 ).

اس بنا پر اگر يہ عورت اكيلا رہنے سے ڈرتى ہے، يا پھر گھر كا كرايہ نہيں ادا كر سكتى تو اپنے ميكے جا كر عدت گزارنے ميں كوئى حرج نہيں ہے.
واللہ اعلم .

(ماخذ: الاسلام سوال و جواب)

_________&___________

*پاکستانی فتاویٰ ویبسائٹ "محدث اردو فتویٰ" پر ایسا ایک فتویٰ ملاحظہ فرمائیں!

📙 (192) عدت گزارنے والی عورت کام پر جاسکتی ہے؟
سوال:
لندن سے مسز شمیم لودھی لکھتی ہیں

’’ خاوند کے فوت ہونے پر بیوی کو عدت کے دن پورے کرنے ہوتے ہیں اور کافی شرائط بھی ہیں کہ وہ یہ نہیں کرسکتی ‘ وہ نہیں کر سکتی‘ باہر نہیں جا سکتی۔ اگر عورت کے اوپر سب گھربار کا بوجھ پڑھ جائے اور مجبوراً اسے باہر نکلنا بھی پڑتا ہے جیسے اس ملک میں ایک دو ہفتے کے بعد عورت کام پر جانے لگتی ہے۔ اگر نہ جائے تو سارے گھر کا نظام رک جاتا ہے۔ توایسی حالت میں عورت کے لئے کیا حکم ہے؟
ذرا روشنی ڈالئے‘بہت سی بہنوں کا سوال ہے۔

📚الجواب بعون الوهاب بشرط صحة السؤال

الحمد لله، والصلاة والسلام علىٰ رسول الله، أما بعد!

اگر کسی عورت کا شوہر فوت ہوجائے تو ایسی عورت کے لئے چار مہینے دس دن ہے ۔ اس مدت کےمتعین کرنے کے مختلف اسباب یا حکمتیں ہوسکتی ہیں۔ بہرحال غرض یہی  ہے کہ عورت کو اتنا وقت دیا جائے کہ وہ خاوند کی موت کا صدمہ بھی برداشت کرلے اور استبرائے رحم بھی ہوجائے۔ شریعت اسلامی میں عورت کے لئے بہتر اور مناسب تو یہی ہے کہ وہ اس دوران گھر کے اندر ہی رہے اور ہر قسم کی زیب و زینت سے مکمل پرہیز کرے۔ قرآن حکیم کی سورہ بقرہ آیت نمبر ۲۳۶ میں عدت کا ذکر ہوا ہے۔

خاوند کی وفات کے علاوہ طلاق کی شکل میں عدت کے دوران بھی عورت کے لئے باہر نکلنا ممنوع قرار دی گیا ہے۔ چنانچہ سورہ طلاق کی آیت نمبر ۱ میں مردوں کو اس بات سے روکا گیا کہ وہ عورتوں کو طلاق کے بعد عدت کے دوران ہی گھر سے نکال دیں اور عورتوں کو بھی اس بات سےمنع کیاگیا کہ وہ خود گھروں نکل جائیں۔اسلام سے پہلے جاہلیت کےزمانے میں مطلقہ عورتوں خصوصاً جن کے خاوند فوت ہوجاتے تھے انہیں سخت ذہنی اذیت سے دوچار ہوناپڑتا تھا انہیں تمام معاشرے سے الگ تھلگ کرکے ایک غلیظ و تاریک کمرے میں رہنے پر مجبور کیا جاتاتھا ا ور گندے کپڑے پہننے کی پابندیا ں لگائی جاتی تھی اور پھر اس کے بعد جاہلیت کی بعض فضول قسم کی رسمیں ادا کرنے کے بعد اس گھر یا کمرے سے باہر آتی تھیں۔ اسلام نے جہاں ان تمام پابندیوں کو ختم کیا اور اسے عزت و وقار کے ساتھ اسی گھر میں رہنے کا حق دیا ۔ وہاں خوشبو اور زیب و زینت  کی دوسری اشیاء استعمال کرنے سےمنع کیا۔

جہاں تک کام یا دوسری کسی ضرورت کے تحت باہر نکلنے کا تعلق ہے تو قرآن کی تعلیمات اور احادیث میں جو تفصیل آئی ہے اس سے یہی معلوم ہوتا ہے کہ عام حالات میں تو اس کی اجازت نہیں اور خیر و برکت اسی میں ہے کہ اسلامی احکام پر عمل کرکے عورت چار ماہ دس دن گھر میں گزارے لیکن شدید ضرورت کے تحت عورت کو گھر سے باہر جانے کی اجازت بھی دی گئی ہے۔

حدیث میں آتا ہے کہ حضرت ام سلمہؓ کے پاس ایک عورت آئی جس کا خاوند فوت ہوچکا تھا اور وہ عدت گزار رہی تھی۔ اس نے پوچھا کہ میرا والد بیمار ہے کیا میں اس کے یہاں جاسکتی ہوں ؟ ام سلمہ نے دن کے وسطہ میں جانے کی اجازت دے دی۔

ایک اور روایت میں ہے: ’’شہدائے احد کی بیویوں نے رسول اللہﷺ سے یہ شکایت کی کہ گھر میں وہ تنہائی محسوس کرتی ہیں تو کیا ہم کبھی ایک دوسری کے پاس رات گزار سکتی ہیں؟ تو آپﷺ نے انہیں ایک دوسری کے گھر میں جانے کی اجازت دی اورفرمایا کہ سونے کےوقت اپنے گھروں میں آجایا کرو۔‘‘ (نیل الاوطار)

اس طرح کی متعدد روایا ت اور صحابہ کرام ؓ کے اقوال سے معلوم ہوتا ہے کہ ایسی عورتیں ضرورت کے مطابق اپنے گھروں سے باہر نکل سکتی ہیں۔

اس لئے آپ نے کام کرنے کے بارےمیں جو دریافت کیا ہے یہ بھی ایک ضرورت  اور مجبوری ہے جس کی  وجہ سے عدت گزارنے والی عورت کو کچھ دیر کےلئے باہر نکلنا پڑتا ہے ۔ لہٰذا جس عورت کا اور کوئی ذریعہ معاش نہیں کوئی کمانے والا بھی نہیں چھٹی بھی نہیں مل سکتی اور کوئی متبادل بھی نہیں تو ایسی صورت میں وہ کام پر جاسکتی ہےلیکن عام سادہ اور باوقار لباس میں جانا چاہئے اور زیب و زینت اور آرائش سےمکمل پرہیز کرنا ہوگا۔

حضرت جابرؓ سےایک حدیث مروی ہے ’’ میری خالہ کو تین طلاقیں ہوچکی تھیں (وہ حالت عدت میں تھی) تو وہ کھجور کاٹنے کےلئے باہر گئی۔ اسے ایک آدمی نے منع کیا تو وہ نبی کریم ﷺ کے پاس آئی اور یہ بات ذکر کی توآپ ﷺ نے فرمایا تو باہر جاکر کھجوریں کاٹ سکتی ہے۔ ہوسکتا ہے تو اس طرح اللہ کی راہ میں صدقہ کرے یا کوئی خیرو بھلائی کرے۔‘‘ (مسلم شریف)

اب اس حدیث سے بھی ہم یہ استدلال کرسکتے ہیں کہ ضرورت اور کام کےلئے عورت باہر جاسکتی ہےکیونکہ عام حالت میں تو مطلقہ عورت کو بھی عدت کےدوران باہر نکلنے کی اجازت نہیں دی گئی۔
( ھذا ما عندي والله أعلم بالصواب)
فتاویٰ صراط مستقیم
ص409محدث فتویٰ

((( واللہ تعالیٰ اعلم باالصواب )))

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